आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 9 अक्टूबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि किसी अस्पताल या डॉक्टर को “पेशेवर क्षतिपूर्ति मेडिकल प्रतिष्ठान पॉलिसी” (professional indemnity policy) जारी करने वाली बीमा कंपनी, मेडिकल लापरवाही का आरोप लगाते हुए रोगी द्वारा दायर उपभोक्ता शिकायत में न तो “आवश्यक पक्ष” (necessary party) है और न ही “उचित पक्ष” (proper party) है।
न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति चल्ला गुणरंजन की खंडपीठ ने एक डॉक्टर द्वारा दायर रिट याचिका (W.P. No. 18839 of 2025) को खारिज कर दिया, जिसमें डॉक्टर ने अपने बीमाकर्ता को एक चल रहे उपभोक्ता मामले में पक्षकार बनाने की मांग की थी। कोर्ट ने ‘डॉमिनस लिटिस’ (dominus litis) के सिद्धांत को बरकरार रखते हुए यह पुष्टि की कि शिकायतकर्ता (रोगी) ही “मुकदमे का स्वामी” होता है और उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी ऐसे पक्ष को जोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जो मुख्य विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला गुंटूर जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के समक्ष दायर एक उपभोक्ता शिकायत (C.C.No.112 of 2023) से शुरू हुआ। श्री चेकुरी लक्ष्मी नारायण ने यह शिकायत डॉ. मुदुनुरी रवि किरण (याचिकाकर्ता) और यशोदा ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स के अन्य प्रतिनिधियों पर चिकित्सा लापरवाही का आरोप लगाते हुए मुआवजे की मांग की थी।

इसके जवाब में, डॉ. किरण ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश I नियम 10 के तहत एक अंतर्कालीन आवेदन (M.A.No.487 of 2023) दायर किया, जिसमें द न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को मामले में चौथे विरोधी पक्ष के रूप में जोड़ने की मांग की गई। याचिकाकर्ता की दलील थी कि अस्पताल “पेशेवर क्षतिपूर्ति मेडिकल प्रतिष्ठान पॉलिसी” के तहत बीमित था, और इसलिए, बीमा कंपनी शिकायत में एक “उचित और आवश्यक पक्ष” थी।
शिकायतकर्ता ने इस आवेदन का विरोध किया।
7 मार्च, 2024 को, जिला फोरम ने M.A.No.487 of 2023 को खारिज कर दिया। फोरम ने माना कि शिकायतकर्ता का बीमा कंपनी के साथ कोई “संविदात्मक संबंध” (privity of contract) नहीं था और वह उक्त पॉलिसी का “न तो उपभोक्ता था और न ही लाभार्थी”। फोरम ने यह भी कहा कि यदि याचिकाकर्ता (डॉक्टर) पर दायित्व तय किया जाता है, तो वह “बीमा कंपनी से अलग कार्यवाही में राहत मांगने के लिए स्वतंत्र” होगा।
इसके बाद याचिकाकर्ता की चुनौती (रिवीजन पिटीशन नंबर 26 ऑफ 2024) को भी ए.पी. राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, विजयवाड़ा ने 31 दिसंबर, 2024 के एक आदेश द्वारा खारिज कर दिया। इन आदेशों से व्यथित होकर, डॉ. किरण ने हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान रिट याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील, श्री के. सर्वभौमा राव ने मुख्य रूप से तीन दलीलें पेश कीं:
- बीमा कंपनी इस कार्यवाही में “कम से कम एक उचित पक्ष” है।
- बीमाकर्ता को पक्षकार बनाने से “मुकदमों की बहुलता से बचा” जा सकेगा, अन्यथा डॉक्टर को प्रतिपूर्ति के लिए बीमा कंपनी के खिलाफ अलग से मामला दायर करना होगा।
- मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत दर्ज़ मामलों का एक सादृश्य दिया गया, जहां बीमा कंपनी को “एक आवश्यक पक्ष या एक उचित पक्ष के रूप में” शामिल किया जाता है।
- राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) के आदेशों, जैसे डॉ. सी.सी. चौबल बनाम पंकज श्रीवास्तव का हवाला दिया गया, जिसमें बीमाकर्ताओं को पक्षकार बनाने का निर्देश दिया गया था।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने निर्धारण के लिए दो मुख्य बिंदु तैयार किए: (A) क्या बीमा कंपनी उपभोक्ता शिकायत में एक आवश्यक या उचित पक्ष है, और (B) क्या जिला फोरम का आदेश कानूनन सही था।
1. ‘डॉमिनस लिटिस’ सिद्धांत पर: पीठ ने इस स्थापित कानूनी सिद्धांत को दोहराया कि वादी ‘डॉमिनस लिटिस’ (मुकदमे का स्वामी) होता है। कोर्ट ने सुधामयी पट्टनायक एवं अन्य बनाम बिभु प्रसाद साहू एवं अन्य (2022) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “वादी की इच्छा के विरुद्ध किसी को भी प्रतिवादी के रूप में शामिल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती,” जब तक कि अदालत इसे उचित निर्णय के लिए आवश्यक न समझे।
2. आवश्यक पक्ष बनाम उचित पक्ष: फैसले में मुंबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड बनाम रीजेंसी कन्वेंशन सेंटर (2010) के हवाले से “आवश्यक पक्ष” (जिसकी “अनुपस्थिति में अदालत द्वारा कोई प्रभावी डिक्री पारित नहीं की जा सकती”) और “उचित पक्ष” (जिसकी “उपस्थिति अदालत को विवाद के सभी मामलों पर पूरी तरह से, प्रभावी ढंग से और पर्याप्त रूप से निर्णय लेने में सक्षम बनाएगी”) के बीच अंतर स्पष्ट किया गया।
इन पैमानों को लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने बीमाकर्ता को दोनों में से कोई नहीं माना:
- आवश्यक पक्ष नहीं: कोर्ट ने माना कि “बीमा कंपनी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसकी अनुपस्थिति में, अस्पताल या डॉक्टरों के खिलाफ कोई प्रभावी आदेश पारित नहीं किया जा सकता या मुआवजा नहीं दिया जा सकता।”
- उचित पक्ष नहीं: कोर्ट ने यह निर्धारित किया कि जिला फोरम के समक्ष “विवाद के मामलों” पर निर्णय लेने के लिए बीमाकर्ता की उपस्थिति की “आवश्यकता नहीं होगी”, क्योंकि मुख्य विवाद “डॉक्टरों की ओर से लापरवाही या सेवा में कमी” का है। पीठ ने कहा, “इन पर बीमा कंपनी की अनुपस्थिति में भी प्रभावी ढंग से निर्णय लिया जा सकता है।”
3. NCDRC के विचारों से असहमति: हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता द्वारा उद्धृत NCDRC के आदेशों से स्पष्ट असहमति व्यक्त की। कोर्ट ने माना, “हमारा विचार है कि कोई पक्ष आवश्यक या उचित है या नहीं, इसका परीक्षण कानून के स्थापित सिद्धांतों पर किया जाना चाहिए… हम राष्ट्रीय आयोग के उद्धृत निर्णयों में अपनाए गए दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं।”
4. मोटर वाहन अधिनियम की तुलना को अस्वीकार करना: पीठ ने याचिकाकर्ता द्वारा मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के साथ की गई तुलना को दृढ़ता से खारिज कर दिया। अदालत ने एम.वी. एक्ट के अध्याय 11 का विस्तृत विश्लेषण किया, जिसमें धारा 146 (अनिवार्य थर्ड-पार्टी बीमा) और धारा 149 (निर्णयों को पूरा करने का बीमाकर्ता का वैधानिक कर्तव्य) पर प्रकाश डाला गया। कोर्ट ने कहा कि एम.वी. एक्ट एक विशिष्ट वैधानिक ढांचा बनाता है जो बीमाकर्ता को एक आवश्यक पक्ष बनाता है।
कोर्ट ने इस बिंदु पर निष्कर्ष निकाला: “मेडिकल लापरवाही के कारण मुआवजे के मामलों में जिला फोरम के समक्ष उसे पक्षकार बनाने के लिए ऐसी कोई तुलना नहीं की जा सकती।”
निर्णय
इस विश्लेषण के आधार पर, हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:
- बिंदु “A” पर: “हमारा मानना है कि बीमा कंपनी C.C.No.112 of 2023 में न तो आवश्यक पक्ष है और न ही उचित पक्ष है। शिकायतकर्ता/प्रतिवादी नंबर 1 ‘डॉमिनस लिटिस’ है और उसे बीमा कंपनी को पक्षकार बनाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।”
- बिंदु “B” पर: “हमारा मानना है कि जिला फोरम द्वारा पारित 07.03.2024 के आदेश में कोई अवैधता नहीं है।”
नतीजतन, पीठ ने फैसला सुनाया, “रिट याचिका में कोई दम नहीं है और इसे खारिज किया जाता है।”