इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एक विवाहित बेटी, कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में, मोटर दुर्घटना में माता-पिता या भाई-बहन की मृत्यु पर पूरे मुआवजे का दावा करने की हकदार है। उसके दावे को केवल इसलिए नो-फॉल्ट लायबिलिटी (no-fault liability) राशि तक सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह मृतक पर आश्रित नहीं थी। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दायर की गई अपीलों को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह ने पुष्टि की कि एक कानूनी उत्तराधिकारी को गैर-निर्भरता के आधार पर उचित मुआवजे से वंचित करना “न्याय का उपहास” होगा।
यह निर्णय सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता द्वारा मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण, लखनऊ द्वारा पारित फैसलों को चुनौती देने वाली दो अपीलों पर आया। न्यायाधिकरण ने एक सड़क दुर्घटना में सुश्री तबस्सुम को उनके पिता आफताब हुसैन और उनके भाई तनवीर हुसैन की मृत्यु के लिए मुआवजा दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 24 अप्रैल, 2009 को हुई एक दुखद दुर्घटना से संबंधित है। आफताब हुसैन और उनके बेटे तनवीर हुसैन लखनऊ में मोहन रोड पर बहादुर ग्राम खुशालगंज के पास मोटरसाइकिल से यात्रा कर रहे थे, तभी सिंचाई विभाग के एक ट्रक (नंबर URA 9406) ने उन्हें टक्कर मार दी। दोनों को गंभीर चोटें आईं। आफताब हुसैन की उसी दिन मृत्यु हो गई, जबकि उनके बेटे तनवीर हुसैन ने 1 मई, 2009 को दम तोड़ दिया।

एकमात्र जीवित पारिवारिक सदस्य, सुश्री तबस्सुम (आफताब हुसैन की बेटी और तनवीर हुसैन की बहन) ने दो अलग-अलग दावा याचिकाएं दायर कीं। मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण ने पाया कि दुर्घटना ट्रक चालक की लापरवाही और तेज गति से गाड़ी चलाने के कारण हुई थी सुश्री तबस्सुम को उनके पिता की मृत्यु के लिए 2,13,200 रुपये और उनके भाई की मृत्यु के लिए 1,60,400 रुपये, 6% वार्षिक ब्याज के साथ देने का आदेश दिया।
राज्य सरकार ने इन फैसलों को हाईकोर्ट में चुनौती दी।
पक्षकारों की दलीलें
राज्य सरकार की ओर से स्थायी वकील ने तर्क दिया कि मोटर दुर्घटना के मामलों में मुआवजा निर्भरता के नुकसान के सिद्धांत पर आधारित है। यह दलील दी गई कि चूंकि सुश्री तबस्सुम एक विवाहित बेटी थीं, इसलिए उन्हें उनके मृत पिता और भाई पर आश्रित नहीं माना जा सकता। इसलिए, राज्य ने तर्क दिया कि वह केवल मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 140 के तहत नो-फॉल्ट लायबिलिटी प्रावधान के तहत मुआवजे की हकदार थीं, जो प्रत्येक मृत्यु के लिए 50,000 रुपये होती। राज्य ने अपने दावे के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट के मंजूरी बेरा बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और दीप शिखा बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के फैसलों का हवाला दिया।
इसके जवाब में, सुश्री तबस्सुम के वकील ने तर्क दिया कि अधिनियम की धारा 166 के तहत, सभी कानूनी प्रतिनिधियों को मुआवजे का दावा करने का अधिकार है। यह प्रस्तुत किया गया कि मुआवजे की राशि भिन्न हो सकती है, लेकिन निर्भरता की कमी से दावा करने का अधिकार समाप्त नहीं होता है। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि सुश्री तबस्सुम वास्तव में अपने पिता और भाई पर निर्भर थीं, क्योंकि उनके पति दुबई में कार्यरत थे और वह अक्सर अपने मायके में रहती थीं और उन्हें वहां से सहायता मिलती थी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
हाईकोर्ट ने विचार के लिए केंद्रीय मुद्दे को इस रूप में तैयार किया कि “क्या एक विवाहित बेटी को अधिनियम की धारा 140 में उल्लिखित निर्धारित सीमा से अधिक मुआवजे का दावा करने से बाहर रखा जा सकता है।”
न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह ने कानूनी मिसालों का विस्तृत विश्लेषण किया। अदालत ने पाया कि राज्य द्वारा मंजूरी बेरा मामले पर भरोसा करना उसके अनुपात की गलतफहमी पर आधारित था। अदालत ने स्पष्ट किया कि मंजूरी बेरा का फैसला एक गैर-आश्रित कानूनी उत्तराधिकारी के लिए मुआवजे को नो-फॉल्ट लायबिलिटी राशि तक सीमित नहीं करता है। अदालत ने मंजूरी बेरा फैसले के ऑपरेटिव हिस्से का हवाला देते हुए इस निष्कर्ष पर प्रकाश डाला कि “भले ही निर्भरता का कोई नुकसान न हो, दावेदार यदि वह कानूनी प्रतिनिधि है, तो मुआवजे का हकदार होगा, जिसकी राशि धारा 140 के तहत आने वाली देयता से कम नहीं होगी।” अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि यह मुआवजे की राशि के लिए एक न्यूनतम सीमा निर्धारित करता है, अधिकतम नहीं।
फैसले में सुप्रीम कोर्ट के बाद के फैसले नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम बीरेंद्र (2020) पर बहुत अधिक भरोसा किया गया, जिसमें गैर-आश्रित कानूनी उत्तराधिकारियों के अधिकारों पर स्पष्ट रूप से विचार किया गया था। हाईकोर्ट ने बीरेंद्र के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था:
“अब तक यह तय हो चुका है कि मृतक के कानूनी प्रतिनिधियों को मुआवजे के लिए आवेदन करने का अधिकार है। ऐसा कहने के बाद, यह आवश्यक रूप से पालन करना चाहिए कि मृतक के प्रमुख विवाहित और कमाने वाले बेटे भी कानूनी प्रतिनिधि होने के नाते मुआवजे के लिए आवेदन करने का अधिकार रखते हैं और यह न्यायाधिकरण का कर्तव्य होगा कि वह इस तथ्य के बावजूद आवेदन पर विचार करे कि क्या संबंधित कानूनी प्रतिनिधि पूरी तरह से मृतक पर निर्भर था और दावे को केवल पारंपरिक मदों तक सीमित न करे।”
अदालत ने कहा कि बीरेंद्र के फैसले का पालन बाद में सुप्रीम कोर्ट के मामलों जैसे सीमा रानी और जितेंद्र कुमार में किया गया, जिससे यह सिद्धांत मजबूत हुआ कि विवाहित बच्चों, चाहे वे बेटे हों या बेटियां, को कानूनी प्रतिनिधि के रूप में मुआवजे का दावा करने का अधिकार है।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि एक कानूनी उत्तराधिकारी को इस आधार पर धारा 140 की सीमा से अधिक मुआवजे से वंचित नहीं किया जा सकता है कि वह आश्रित नहीं था। अंतिम राशि की गणना करते समय, निर्भरता की डिग्री पर विचार किया जा सकता है, लेकिन यह उचित मुआवजे से पूरी तरह इनकार का आधार नहीं हो सकता।
मानव जीवन के मूल्य पर एक मार्मिक टिप्पणी में, अदालत ने कहा:
“यह हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मानव जीवन का बहुत मूल्य है, यह कहना विसंगत होगा कि कोई व्यक्ति परिवार के किसी प्रियजन या सदस्य को खो देता है और केवल इसलिए कि कानूनी प्रतिनिधि मृतक पर निर्भर नहीं है, उसे केवल अधिनियम की धारा 140 के तहत निर्धारित नो-फॉल्ट लायबिलिटी राशि और पारंपरिक मदों के तहत कुछ राशि तक ही सीमित रखा जाएगा, यह न्याय का उपहास होगा और किसी अन्य की लापरवाही के कारण एक महत्वपूर्ण इंसान के नुकसान का मज़ाक उड़ाना होगा।”
अंतिम निर्णय
राज्य की दलीलों में कोई योग्यता न पाते हुए, हाईकोर्ट ने दोनों अपीलों को खारिज कर दिया और न्यायाधिकरण द्वारा पारित फैसलों की पुष्टि की। अदालत ने निर्देश दिया कि हाईकोर्ट के पास जमा किसी भी राशि को दावेदार को जारी करने के लिए न्यायाधिकरण को भेजा जाए और किसी भी कमी को 60 दिनों के भीतर अद्यतन ब्याज के साथ भुगतान किया जाए।