उड़ीसा हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC), अंगुल द्वारा दायरकर्ता श्याम सुंदर अग्रवाला की डिस्चार्ज याचिका को खारिज करने के आदेश को रद्द कर दिया। यह मामला 2005 से लंबित था। न्यायमूर्ति शशिकांत मिश्रा ने CRLMC नंबर 3159/2024 पर निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि निचली अदालतों को धारा 245 दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत दायर डिस्चार्ज याचिकाओं को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए स्पष्ट और तर्कपूर्ण कारण दर्ज करने होंगे।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद एक औद्योगिक संपत्ति से जुड़ा है, जिसे ओडिशा स्टेट फाइनेंशियल कॉरपोरेशन (OSFC) ने 28 फरवरी 2002 को श्याम सुंदर अग्रवाला के पक्ष में नीलाम किया था। शिकायतकर्ता, जिसे विपक्षी पक्ष संख्या 2 के रूप में पहचाना गया, ने इस नीलामी को हाईकोर्ट में चुनौती दी और OJC नंबर 3777/2002 में संपत्ति हस्तांतरण पर स्थगन आदेश प्राप्त किया।
आरोप है कि इस स्थगन आदेश के बावजूद, 22 अक्टूबर 2004 को अग्रवाला ने कथित रूप से फैक्ट्री परिसर में अतिक्रमण किया, वहां से इकाई को तोड़ा और लगभग 12 लाख रुपये मूल्य की मशीनरी हटा दी। इस संबंध में 20 जुलाई 2005 को दर्ज एफआईआर के आधार पर बंतला पुलिस स्टेशन (P.S. Case No. 45/2005) में धारा 447, 448, 427, 379, 294, और 506 IPC के तहत मामला दर्ज किया गया। हालांकि, पुलिस ने 27 दिसंबर 2006 को इस मामले में अंतिम रिपोर्ट दाखिल कर दी।

इसके छह साल बाद, 2012 में शिकायतकर्ता ने एक विरोध याचिका दायर की, जिसके परिणामस्वरूप SDJM कोर्ट, अंगुल में ICC केस नंबर 74/2012 दर्ज किया गया। ट्रायल कोर्ट ने धारा 202 CrPC के तहत जांच के बाद मामले को संज्ञान में लिया। अग्रवाला ने कई बार डिस्चार्ज याचिकाएं दाखिल कीं, यह तर्क देते हुए कि उनके खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता, लेकिन JMFC और सत्र न्यायालय ने उनकी याचिकाओं को बार-बार खारिज कर दिया। उनकी पिछली याचिका (CRLMC नंबर 166/2021) को इस निर्देश के साथ निस्तारित कर दिया गया था कि वे मुकदमे के उचित चरण में पुनः वही आधार प्रस्तुत कर सकते हैं।
कानूनी मुद्दे और हाईकोर्ट की टिप्पणियां
मामले का मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या ट्रायल कोर्ट ने अग्रवाला की डिस्चार्ज याचिका को खारिज करने का उचित कारण दिया था। धारा 245 CrPC, जो वारंट मामलों में डिस्चार्ज की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है, मजिस्ट्रेट को यह निर्देश देती है कि वह अभियुक्त को डिस्चार्ज करने या न करने के कारण स्पष्ट रूप से दर्ज करे।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने पाया कि ट्रायल कोर्ट के आदेश में केवल यह कहा गया था कि प्रथम दृष्टया साक्ष्य मौजूद हैं, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए विशेष आधारों पर कोई विचार नहीं किया गया था। अपने निर्णय में हाईकोर्ट ने टिप्पणी की:
“न्यायालय ने जिस कारण से याचिका को अस्वीकार किया, वह वास्तव में आरोप तय करने के लिए दी जाने वाली दलील है, जबकि यह चरण अभी आया ही नहीं था।”
हाईकोर्ट ने शिबराम साहू बनाम उड़ीसा राज्य (विजिलेंस विभाग) मामले में स्थापित सिद्धांत को दोहराया, जिसमें कहा गया था कि किसी भी डिस्चार्ज याचिका का निस्तारण एक तर्कसंगत आदेश के माध्यम से किया जाना चाहिए, जिसमें अभियुक्त द्वारा उठाए गए सभी बिंदुओं पर विचार हो।
हाईकोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की प्रक्रिया को विधिक आवश्यकताओं के विपरीत माना और यह निर्णय सुनाया कि:
“निचली अदालत के लिए यह अनिवार्य है कि वह अभियुक्त द्वारा उठाए गए विशिष्ट आधारों पर विचार करे और उसे डिस्चार्ज करने या न करने के अपने कारण स्पष्ट रूप से दर्ज करे।”
हाईकोर्ट ने CRLMC को स्वीकार करते हुए मामले को ट्रायल कोर्ट को वापस भेज दिया और निर्देश दिया कि वह अग्रवाला की डिस्चार्ज याचिका पर पुनर्विचार करे और एक नया, सुविचारित आदेश जारी करे।