मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै पीठ ने W.P.(MD) No.17863 of 2023 में यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि यदि कोई कर्मचारी अपनी गलती के बिना ड्यूटी से रोका गया हो, तो उस पर ‘नो वर्क नो पे’ (No Work No Pay) का सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति बट्टू देवनंद ने यह आदेश पारित करते हुए याचिकाकर्ता सी. मार्कन्डन (पूर्व ग्राम प्रशासनिक अधिकारी) को 01.02.2018 से 18.03.2019 तक की अवधि का वेतन और सेवा लाभ देने का निर्देश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
सी. मार्कन्डन की नियुक्ति 1983 में ग्राम थलैयारी के रूप में हुई थी और 2016 में उन्हें ग्राम प्रशासनिक अधिकारी (VAO) पद पर पदोन्नत किया गया। उनके सेवा रिकॉर्ड में जन्मतिथि 23.03.1961 के स्थान पर गलती से 28.01.1958 दर्ज हो गई थी, जिसके कारण उन्हें 30.04.2018 को समय से पूर्व सेवानिवृत्त कर दिया गया।
हालांकि, उन्होंने 2015 में सिविल कोर्ट से अपने पक्ष में आदेश प्राप्त किया और सही जन्मतिथि वाला प्रमाणपत्र जारी हुआ। इसके बाद मद्रास हाईकोर्ट की खंडपीठ ने WA(MD) No.147 of 2019 में दिनांक 05.03.2019 को आदेश दिया कि उन्हें सेवा में बहाल किया जाए और सही जन्मतिथि को मान्यता दी जाए। वे 19.03.2019 को फिर से सेवा में लौटे और 31.03.2019 को औपचारिक रूप से सेवानिवृत्त हुए।
परंतु तहसीलदार ने दिनांक 09.02.2023 को यह कहते हुए वेतन और पेंशन लाभ से इनकार कर दिया कि संबंधित अवधि में उन्होंने कार्य नहीं किया, इसलिए ‘नो वर्क नो पे’ लागू होगा।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ता ने कहा कि उन्होंने कार्य जारी रखने की इच्छा जताई थी और वे पात्र भी थे, लेकिन प्रशासनिक त्रुटि के कारण उन्हें ड्यूटी से रोका गया। इसलिए ‘नो वर्क नो पे’ का नियम उन पर लागू नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि आदेश बिना सुनवाई के पारित हुआ, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
प्रत्युत्तर पक्ष के तर्क
चौथे प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने 01.02.2018 से 18.03.2019 तक कार्य नहीं किया, इसलिए वेतन नहीं दिया जा सकता। उन्होंने कहा कि पेंशन प्रक्रिया के लिए उनका वेतन केवल काल्पनिक रूप (notional) से तय किया गया था।
कोर्ट के महत्वपूर्ण उद्धरण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति बट्टू देवनंद ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता सेवा में अवरोध के लिए उत्तरदायी नहीं थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के Commissioner of Karnataka Housing Board v. C. Muddaiah [(2007) 7 SCC 689] में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए कहा:
“किसी मामले में न्यायालय यह निर्णय ले सकता है कि व्यक्ति कार्य करने को इच्छुक था, लेकिन उसे अवैध और अनुचित रूप से कार्य करने से रोका गया… ऐसी स्थिति में न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि संबंधित प्राधिकारी उसे ऐसा सभी लाभ प्रदान करे, जैसे मानो उसने उस अवधि में कार्य किया हो।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“याचिकाकर्ता ग्राम प्रशासनिक अधिकारी के रूप में 01.02.2018 से 18.03.2019 तक सेवा जारी नहीं रख पाने के लिए दोषी नहीं हैं। उत्तरदाता यह तर्क नहीं दे सकते कि उन्होंने सेवा नहीं की और उस अवधि में ‘नो वर्क नो पे’ लागू किया जा सकता है।”
हाईकोर्ट के पुराने निर्णय W.P. No.9660 of 2019 का उल्लेख करते हुए भी कोर्ट ने कहा:
“यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्ता उस अवधि के दौरान कार्यालय का कार्य नहीं करने के लिए दोषी हैं। उन्हें ‘नो वर्क नो पे’ के आधार पर वेतन से वंचित कर दंडित नहीं किया जा सकता।”
कोर्ट ने यह दोहराया कि ‘नो वर्क नो पे’ का सिद्धांत पूर्णतः निरपेक्ष (absolute) नहीं है, और जब कर्मचारी की गलती न हो, तब इसे सुसंगत रूप से नहीं लागू किया जा सकता।
अंतिम आदेश
कोर्ट ने तहसीलदार के 09.02.2023 के आदेश को अवैध, अन्यायपूर्ण और खंडपीठ के पूर्व निर्णय के विरुद्ध बताते हुए रद्द कर दिया और निम्नलिखित निर्देश दिए:
- तहसीलदार का आदेश निरस्त किया गया।
- याचिकाकर्ता को 01.02.2018 से 18.03.2019 की अवधि सहित सभी सेवा और सेवानिवृत्ति लाभ चार सप्ताह के भीतर प्रदान किए जाएं।
कोर्ट ने अंत में कहा:
“यह न्यायालय इस विचार पर पहुंचा है कि याचिकाकर्ता 31.03.2019 की पूर्वाह्न (FN) तक निरंतर सेवा लाभ पाने के अधिकारी हैं। उत्तरदाताओं की कार्यवाही अवैध है और रद्द की जाती है।”
मामले का शीर्षक: C. Markandan बनाम The District Collector एवं अन्य
मामला संख्या: W.P.(MD) No.17863 of 2023 एवं W.M.P.(MD) No.14948 of 2023