एक महत्वपूर्ण निर्णय में करुणा और गरिमा को प्राथमिकता देते हुए, मद्रास हाईकोर्ट ने उस न्यायिक मजिस्ट्रेट की तीखी आलोचना की जिसने केवल इस आधार पर एक विधवा कर्मचारी की मातृत्व अवकाश की याचिका खारिज कर दी थी कि उसने विवाह से पहले गर्भधारण किया था। कोर्ट ने इस निर्णय को “अमानवीय” और “पुरातन सोच” करार देते हुए आदेश को रद्द कर दिया और मानसिक पीड़ा के लिए ₹1 लाख का मुआवजा देने का निर्देश दिया।
मामला क्या है?
याचिकाकर्ता, जो कि थिरूवरूर जिले की एक अधीनस्थ अदालत में ऑफिस असिस्टेंट के रूप में कार्यरत हैं, ने वर्ष 2020 में अपने पति को खो दिया था। कुछ वर्षों बाद, उन्होंने एक संबंध में प्रवेश किया जिससे उन्हें संतान की प्राप्ति हुई। प्रारंभ में मतभेदों के कारण उन्होंने धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। हालांकि बाद में दोनों ने एक मंदिर में विवाह कर लिया।
अक्टूबर 2024 में उन्होंने मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन किया, जिसे नवंबर 2024 में अदालत प्रशासन द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। कारण दिए गए:

- विवाह का पंजीकरण प्रमाणपत्र उपलब्ध नहीं है।
- गर्भधारण विवाह से पहले हुआ।
- पुलिस शिकायत विवाह का प्रमाण नहीं मानी जा सकती।
प्रशासन ने एक सरकारी आदेश (G.O. Ms No.84) का हवाला दिया, जिसमें मातृत्व अवकाश केवल विवाहित महिलाओं को उपलब्ध बताया गया है।
हाईकोर्ट में सुनवाई
इस फैसले को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने मद्रास हाईकोर्ट में रिट याचिका दाखिल की। न्यायमूर्ति आर. सुब्रमणियन और न्यायमूर्ति जी. अरुल मुरुगन की खंडपीठ ने इस पर कठोर टिप्पणियां करते हुए निर्णय सुनाया।
कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ:
विवाह पंजीकरण के बारे में:
“विवाह का अनिवार्य रूप से पंजीकरण आवश्यक नहीं है। जब तक विवाह को लेकर कोई विवाद न हो, तब तक नियोक्ता स्पष्ट और संदेह से परे प्रमाण की मांग नहीं कर सकता।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि विवाह के पर्याप्त प्राथमिक साक्ष्य मौजूद थे – जैसे कि विवाह की तस्वीरें और निमंत्रण पत्र। विरोधी पक्ष ने भी विवाह को नकारा नहीं।
विवाह से पूर्व गर्भधारण:
“मजिस्ट्रेट ने तो इस हद तक संदेह जताया कि गर्भधारण विवाह के बाद हुआ, इसलिए गर्भावस्था पर भी शक जताया।”
खंडपीठ ने इसे मानव संबंधों की वास्तविकताओं के प्रति असंवेदनशील और विधिसम्मत रूप से गलत ठहराया।
न्यायिक सोच पर टिप्पणी:
“आज जब सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन संबंधों को भी मान्यता दी है, तब भी मजिस्ट्रेट का यह दृष्टिकोण पुरातनपंथी है। उन्होंने जबरदस्ती अस्वीकृति के कारण तलाशे।”
“अब समय आ गया है कि न्यायिक अधिकारियों को स्वयं को सुधारना चाहिए और व्यावहारिक सोच अपनानी चाहिए।”
कोर्ट के आदेश और राहत
- याचिकाकर्ता की मातृत्व अवकाश याचिका की अस्वीकृति को रद्द किया गया।
- संबंधित अधिकारी को निर्देश दिया गया कि 18 अक्टूबर 2024 से लिए गए सभी अवकाश को मातृत्व अवकाश मानते हुए वेतन के साथ स्वीकृत किया जाए।
- न्यायपालिका के प्रशासनिक प्रमुख को आदेश दिया गया कि वे याचिकाकर्ता को ₹1 लाख की क्षतिपूर्ति मानसिक कष्ट के लिए दें।
- इस निर्णय की प्रति सभी प्रमुख जिला न्यायाधीशों को भेजने और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया कि अधीनस्थ न्यायिक अधिकारी इस निर्णय से अवगत हों, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।