समावेशी शासन की दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार और मुख्य आयुक्त (दिव्यांगजन) को निर्देश दिया है कि वे बार काउंसिल ऑफ इंडिया, नेशनल मेडिकल काउंसिल जैसे वैधानिक निकायों की निर्वाचित बोर्डों में दिव्यांग व्यक्तियों (PwDs) के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाएं।
यह निर्देश न्यायमूर्ति जी.आर. स्वामिनाथन और न्यायमूर्ति वी. लक्ष्मीनारायणन की खंडपीठ ने पोलियो से ग्रस्त याचिकाकर्ता बी. रमेशबाबू द्वारा दायर एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए जारी किया। याचिकाकर्ता ने दंत चिकित्सा परिषद और फार्मेसी परिषद सहित कई प्रमुख नियामक निकायों में दिव्यांग व्यक्तियों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर चिंता जताई थी। उन्होंने 10 मार्च 2025 को दिए गए अपने अभ्यावेदन पर कार्रवाई की मांग की थी, जिसमें केंद्र और राज्य कानूनों के तहत गठित निकायों में दिव्यांग प्रतिनिधियों को निर्वाचित रूप में शामिल करने की मांग की गई थी।
हालांकि अदालत ने माना कि वैधानिक अधिकार के अभाव में ‘मैंडमस’ (न्यायिक आदेश) जारी नहीं किया जा सकता, लेकिन न्यायालय ने संविधान के सामाजिक न्याय के मूल्यों की ओर शासन को प्रेरित करने की अपनी भूमिका को रेखांकित किया। न्यायालय ने 6 मई 2025 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की कार्यकारिणी में महिलाओं को शामिल करने के निर्देश का हवाला देते हुए समानता के सिद्धांत की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका पर जोर दिया।

अदालत ने कहा, “याचिकाकर्ता की मांग पूरी तरह से दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 द्वारा समर्थित है।” न्यायालय ने इस अधिनियम की धारा 32 और 34 का उल्लेख किया, जो उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 4 प्रतिशत आरक्षण की गारंटी देती हैं, तथा धारा 33, जो दिव्यांगजन के लिए उपयुक्त पदों की पहचान का दायित्व सौंपती है। साथ ही, धारा 75 के अंतर्गत मुख्य आयुक्त की भूमिका को रेखांकित किया गया, जिसमें जागरूकता फैलाना और अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना शामिल है।
न्यायालय ने कहा, “यह न्यायोचित और उचित है कि जैसे दिव्यांग व्यक्तियों को शिक्षा और रोजगार में स्थान दिया गया है, वैसे ही उन्हें निर्वाचित निकायों में भी प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।”