मद्रास हाईकोर्ट ने गुरुवार को तमिल फिल्म एक्टिव प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (TFAPA) द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें किसी फिल्म की रिलीज़ के पहले तीन दिनों के भीतर ऑनलाइन समीक्षाओं पर रोक लगाने की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति एन. सेशासयी की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी कोई भी रोक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगी।
डिजिटल युग में रोक लगाना असंभव: हाईकोर्ट
न्यायालय ने टिप्पणी की कि डिजिटल युग में जब सोशल मीडिया के ज़रिए सामग्री तुरंत वैश्विक रूप से फैलती है, तब ऐसी रोक न केवल “अवैध” है बल्कि व्यावहारिक रूप से भी असंभव है। “मान लीजिए कि इस तरह की राहत दे दी जाती है, तब भी उसे लागू करना नामुमकिन होगा,” अदालत ने कहा, जैसा कि Live Law की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम फिल्म उद्योग की चिंताएं
अदालत ने स्पष्ट किया कि फिल्म समीक्षाएं संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती हैं। “अगर जजों की सोशल मीडिया पर आलोचना की जा सकती है, तो फिल्म निर्माताओं को भी सकारात्मक और नकारात्मक समीक्षा स्वीकार करनी चाहिए,” न्यायमूर्ति सेशासयी ने कहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जनता को यह तय करने का पूरा अधिकार है कि कोई फिल्म अच्छी है या नहीं।
TFAPA की दलीलें
TFAPA ने तर्क दिया था कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों की बढ़ती संख्या के कारण अब आलोचना की मात्रा भी बढ़ गई है, जिसमें कई बार दुर्भावनापूर्ण समीक्षाएं भी शामिल होती हैं। संगठन ने आरोप लगाया कि कुछ यूट्यूब चैनल “रिव्यू बॉम्बिंग” जैसी रणनीति अपनाकर किसी फिल्म की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाते हैं — कई बार निजी दुश्मनी या व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के चलते।
हालांकि एसोसिएशन ने ईमानदार आलोचना की भूमिका को स्वीकार किया, लेकिन इस बात पर चिंता जताई कि कई स्वघोषित समीक्षक सिर्फ अपने सब्सक्राइबर बढ़ाने के लिए अशोभनीय भाषा का प्रयोग करते हैं।
सेंसरशिप की मांग को सिरे से खारिज किया
हाईकोर्ट ने पूर्व-समीक्षा सेंसरशिप की मांग को पूरी तरह से खारिज करते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में टिप्पणी करने, आलोचना करने और राय व्यक्त करने का अधिकार शामिल है — चाहे उससे किसी की व्यावसायिक हितों को नुकसान ही क्यों न हो।
इस फैसले के साथ ही मद्रास हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि आलोचना अगर चुभती भी हो, तो भी वह सार्वजनिक संवाद को रोकने का आधार नहीं बन सकती — खासकर उस समय में जब डिजिटल मंच सार्वजनिक अभिव्यक्ति के नए चौक बन चुके हैं।