विधायिका अदालती फैसले को रद्द नहीं कर सकती, लेकिन वैध संशोधन के जरिए उसके आधार बनी खामी को दूर कर सकती है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने 29 अक्टूबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में इस स्थापित कानूनी सिद्धांत की पुष्टि की है कि यद्यपि विधायिका के पास “किसी अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने या न्यायिक शक्ति का अतिक्रमण करने” की शक्ति नहीं है, लेकिन वह कानून बनाने की अपनी शक्ति के अधीन, “उस आधार को हटाने” के लिए सक्षम है जिसके कारण अदालत ने वह निर्णय दिया था।

इसी सिद्धांत को लागू करते हुए, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी (संशोधन) स्टेट्यूट्स, 2023 के पहले परिनियम (First Statutes) को बरकरार रखा। कोर्ट ने माना कि यह संशोधन, 2019 के हाईकोर्ट के फैसले में पहचानी गई एक प्रक्रियात्मक खामी का एक वैध “उपचार” (cure) था, न कि न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र का “अतिक्रमण” (overreaching)।

इस फैसले ने नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (NIT), कुरुक्षेत्र में एसोसिएट प्रोफेसरों के लिए 2018 की चयन प्रक्रिया को मान्य कर दिया है और 2024 के हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें नए सिरे से चयन का निर्देश दिया गया था।

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पृष्ठभूमि: मूल खामी और निर्णय

यह मामला 2017 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) द्वारा एक पत्र के माध्यम से जारी “एकमुश्त छूट” (one-time relaxation) से शुरू हुआ था। इस पत्र ने पदोन्नति चाहने वाले असिस्टेंट प्रोफेसरों के लिए एक प्रमुख पात्रता मानदंड (एकेडमिक ग्रेड पे) में छूट दी थी, जिसका उद्देश्य ठहराव (stagnation) को दूर करना था।

इस 2017 के पत्र के आधार पर, एनआईटी कुरुक्षेत्र ने विज्ञापन संख्या 3/2018 जारी किया। अपीलकर्ता, रितु गर्ग और अन्य, का चयन किया गया और 27 नवंबर, 2018 को उनकी नियुक्ति की सिफारिश की गई।

हालांकि, इसे चुनौती दी गई और 5 दिसंबर, 2019 के एक फैसले में, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट की एक डिवीजन बेंच ने 2017 के पत्र को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने माना कि यह छूट एक “कार्यकारी निर्देश” (executive instruction) द्वारा नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह एनआईटी के पहले परिनियमों (First Statutes) के विपरीत थी, जो वैधानिक प्रकृति के हैं। इस फैसले, जिसने प्रक्रियात्मक “खामी” की पहचान की थी, को 17 जनवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा।

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विधायी “उपचार”

2019 के फैसले के अंतिम होने के बाद, शिक्षा मंत्रालय ने परिनियमों में संशोधन के लिए विजिटर (भारत के राष्ट्रपति) के पास एक प्रस्ताव भेजा। सारांश नोट (summary note) में स्पष्ट रूप से कहा गया कि “एकमुश्त छूट… को पूर्वव्यापी (retrospectively) रूप से शामिल करने के लिए स्पष्टीकरण… को शामिल करना आवश्यक हो गया है”।

इस प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई, जिसके परिणामस्वरूप 30 जून, 2023 को नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ टेक्नोलॉजी (संशोधन) स्टेट्यूट्स, 2023 की अधिसूचना जारी की गई। इस संशोधन ने स्टेट्यूट 9 पेश किया, जिसने “6 अक्टूबर, 2017… के संचार के जरिए जारी छूट के अनुसार… एकमुश्त छूट या उपायों” को विधायी रूप से शामिल कर लिया। परिनियम ने आगे स्पष्ट किया कि यह छूट “भर्ती के पहले दौर के बाद… समाप्त हो जाएगी” (यानी, 2018 की प्रक्रिया)।

संशोधन पर विवाद

इस 2023 के वैधानिक संशोधन को मुकदमेबाजी के दूसरे दौर में चुनौती दी गई। रिट याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह हाईकोर्ट के “फैसले को पलटने” और “अदालतों की प्रक्रिया का अतिक्रमण” करने का एक प्रयास था।

31 मई, 2024 के अपने फैसले (“आक्षेपित आदेश”) द्वारा, हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से सहमति जताते हुए यह माना कि 2023 का संशोधन इसकी 2023 की प्रकाशन तिथि से “भविष्योन्मुखी” (prospectively) रूप से लागू होगा। इसने निष्कर्ष निकाला कि “विज्ञापन संख्या 3/2018 के तहत किए गए चयन को नए संशोधनों द्वारा मंजूरी नहीं दी जा सकती” और “नए सिरे से प्रक्रिया” का निर्देश दिया। 2018 के चयनित उम्मीदवारों ने इस आदेश के खिलाफ अपील की।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण: एक वैध “उपचार”, “अतिक्रमण” नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने अपने 2024 के फैसले में “त्रुटि” (erred) की (पैरा 36)।

जस्टिस दत्ता द्वारा लिखित फैसले में, स्टेट ऑफ केरला बनाम पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पैरा 32) का हवाला देते हुए विधायिका की शक्ति की पुष्टि की गई। कोर्ट ने कहा: “विधायिका किसी फैसले को रद्द नहीं कर सकती, लेकिन वह उस आधार को हटा सकती है जिस पर फैसला सुनाया गया है।”

सुप्रीम कोर्ट (पैरा 36) ने पाया कि यहाँ ठीक यही हुआ था। 2019 के हाईकोर्ट के फैसले का “अतिक्रमण” नहीं किया गया था; उसने 2017 के कार्यकारी निर्देश को एक परिनियम के अधीनस्थ होने के कारण सही ढंग से रोका था। इसके विपरीत, 2023 का संशोधन एक वैध विधायी कार्य था जिसने “उस खामी को दूर कर दिया जिस पर न्यायिक आदेश आधारित था” (cured the defect on which the judicial order was premised), और उस छूट को स्वयं परिनियम में शामिल कर लिया।

कोर्ट ने टिप्पणी की (पैरा 36) कि स्टेट्यूट 9 का उद्देश्य “6 अक्टूबर, 2017 के पत्र में व्यक्त विचार को प्रभावी करना था… जिसे… हाईकोर्ट ने… विशेष रूप से इस आधार पर रोका था कि एक परिनियम को एक कार्यकारी निर्देश द्वारा प्रतिस्थापित (supplanted) करने का प्रयास किया गया था”।

फैसले में आगे कहा गया (पैरा 36) कि यह संशोधन “लाभों को पूर्वव्यापी रूप से विस्तारित करने के लिए प्रकृति में स्पष्टीकरणात्मक (clarificatory)” था, जो इस सिद्धांत के अनुरूप एक अनुमेय कार्य है कि स्पष्टीकरणात्मक कानूनों को अक्सर पूर्वव्यापी माना जाता है (एस.एस. ग्रेवाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब का हवाला देते हुए)। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट के 2024 के आदेश ने “उस उद्देश्य को निष्फल कर दिया जिसके लिए स्टेट्यूट 9 पेश किया गया था।”

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अंतिम निर्णय और निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आक्षेपित आदेश को संशोधित किया और एनआईटी कुरुक्षेत्र के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को 2018 की चयन सूची के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया।

  1. बोर्ड, 27 नवंबर, 2018 को अनुशंसित अपीलकर्ताओं और अन्य लोगों की “ऐसी नियुक्ति के लिए विचार करेगा” (पैरा 38)।
  2. उपयुक्त पाए जाने पर, उन्हें बोर्ड द्वारा तय की जाने वाली तारीख (27 नवंबर, 2018 के बाद) से “काल्पनिक नियुक्ति” (notional appointment) (पैरा 38) की पेशकश की जाएगी।
  3. यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एम. भास्कर (पैरा 33) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट किया (पैरा 39) कि नियुक्त व्यक्ति “ऐसी काल्पनिक नियुक्ति की तारीख से किसी भी बकाया वित्तीय लाभ के साथ-साथ शिक्षण अनुभव का दावा करने के हकदार नहीं होंगे।”
  4. हालांकि, उन्हें “सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त करने के लिए सेवाओं की निरंतरता के उद्देश्य से उनकी काल्पनिक नियुक्ति की तारीखों से एसोसिएट प्रोफेसर माना जाएगा” (पैरा 40)।
  5. बोर्ड को एक महीने के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया।
  6. कोर्ट ने यह “पूरी तरह से स्पष्ट” (पैरा 42) कर दिया कि इस विचार के बाद यह “एकमुश्त छूट… समाप्त हो जाएगी”।

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