सुप्रीम कोर्ट ने मकान मालिक और किरायेदार के विवाद से जुड़े एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि मकान मालिक की ‘बोना फाइड’ (सत्य एवं वास्तविक) आवश्यकता की व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिए, और इसमें केवल मकान मालिक की नहीं, बल्कि उसके परिवार के सदस्यों की आवश्यकताएं भी शामिल मानी जाएंगी।
यह निर्णय Murlidhar Aggarwal (D) through LR Atul Kumar Aggarwal vs Mahendra Pratap Kakan (D) through LRs and Ors., सिविल अपील संख्या 4275/2017 में दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 1983 में प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी द्वारा पारित बेदखली आदेश को बहाल करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को पलट दिया। मामला इलाहाबाद स्थित 31, शिवचरण लाल रोड पर स्थित सिनेमा हॉल “मंसरोवर पैलेस” से संबंधित है।
पृष्ठभूमि
इस प्रकरण की शुरुआत 13 अक्टूबर 1952 को निष्पादित एक लीज से हुई, जो तब के संपत्ति मालिक द्वारा प्रतिवादियों के पक्ष में दस वर्षों के लिए दी गई थी। 1962 में अपीलकर्ता के पूर्वज मुरलीधर अग्रवाल ने उक्त संपत्ति खरीदी। 1947 के U.P. (Temporary) Control of Rent and Eviction Act के अंतर्गत पहले प्रयास में बेदखली याचिका असफल रही। बाद में वर्ष 1975 में उत्तर प्रदेश शहरी भवन (अनुज्ञापन, किराया एवं बेदखली विनियमन) अधिनियम, 1972 की धारा 21(1)(a) के तहत एक नई याचिका दाखिल की गई, जिसमें ‘बोना फाइड आवश्यकता’ को आधार बनाया गया।
20 दिसंबर 1983 को प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी ने यह मानते हुए बेदखली याचिका स्वीकार कर ली कि मकान मालिक को सिनेमा व्यवसाय शुरू करने के लिए परिसर की आवश्यकता है और उसकी आय का कोई स्थायी स्रोत नहीं है। परंतु, इस निर्णय को अपीलीय प्राधिकारी ने पलट दिया और हाईकोर्ट ने भी उसी निर्णय को बरकरार रखा।
सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
जस्टिस के. वी. विश्वनाथन ने, जो कि न्यायमूर्ति एम. एम. सुन्दरश की पीठ के साथ बैठे थे, निर्णय लिखते हुए कहा:
“हम पाते हैं कि प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी द्वारा दिए गए विस्तृत कारण और ठोस निष्कर्ष… वर्तमान मामले में अपीलकर्ता की बोना फाइड आवश्यकता दोनों ही परिस्थितियों में प्रमाणित होती है [मूल आवश्यकता और उपरांत की घटनाओं के आधार पर]।”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी ने यह पाया कि मकान मालिक की आय अत्यंत सीमित थी, जिसमें सट्टा और ऋण शामिल थे, जबकि किरायेदार कई सिनेमा व्यवसायों का संचालन कर रहा था और बड़ा करदाता था।
सापेक्ष कठिनाई (comparative hardship) के प्रश्न पर न्यायालय ने प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी के विश्लेषण को उद्धृत किया:
“आवेदक को दुनियावी जिम्मेदारियां निभानी हैं… वह 40 वर्ष का व्यक्ति है और लंबी जिंदगी सामने है… यह परिसर 1952 में 10 वर्षों के लिए किराए पर दिया गया था और वह पिछले 31 वर्षों से इस पर काबिज है।”
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अपीलीय प्राधिकारी द्वारा तथ्यों में हस्तक्षेप अवैध था और उसके पास उसका कोई साक्ष्य-आधारित आधार नहीं था।
विधिक विश्लेषण
न्यायालय ने 1972 अधिनियम की धारा 21(7) का हवाला देते हुए कहा कि कानूनी उत्तराधिकारी स्वयं की आवश्यकता के आधार पर बेदखली कार्यवाही को आगे बढ़ा सकते हैं। इसलिए प्रतिवादियों का यह तर्क कि मुरलीधर अग्रवाल की मृत्यु के बाद अपील शून्य हो गई, अस्वीकार कर दिया गया।
न्यायालय ने Joginder Pal v. Naval Kishore Behal (2002) और Mohd. Ayub v. Mukesh Chand (2012) जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए दोहराया कि:
“मकान मालिक की बोना फाइड आवश्यकता की व्याख्या उदारतापूर्वक की जानी चाहिए… और किरायेदार द्वारा लंबे समय तक कब्जा बनाए रखने के बावजूद वैकल्पिक स्थान की कोई कोशिश न करना, मकान मालिक के दावे को समर्थन देता है।”
साथ ही, न्यायालय ने यह भी कहा कि 1972 नियमों के नियम 16(2)(c) (सापेक्ष कठिनाई) के अंतर्गत प्रस्तुत किरायेदारों की दलील अस्वीकार्य है क्योंकि उन्होंने वैकल्पिक परिसर प्राप्त करने के किसी प्रयास का साक्ष्य नहीं दिया।
निष्कर्ष
अपील को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा Writ-A No. 8508/1999 में 09.01.2013 को पारित निर्णय को रद्द कर दिया और प्रिस्क्राइब्ड अथॉरिटी द्वारा पारित बेदखली आदेश को बहाल कर दिया। प्रतिवादियों को 31 दिसंबर 2025 तक परिसर खाली करने का निर्देश दिया गया, बशर्ते वे चार सप्ताह के भीतर उपयुक्त अंडरटेकिंग दायर करें और बकाया राशि का भुगतान करें।
“हम अंततः इस लंबे समय से चल रहे सिनेमा हॉल विवाद का ‘पर्दा गिरा’ कर अंत करते हैं,” न्यायालय ने टिप्पणी की।
न्यायिक उद्धरण: Murlidhar Aggarwal (D) through LR Atul Kumar Aggarwal vs Mahendra Pratap Kakan (D) through LRs and Ors