तलाक की कार्यवाही की अंतिमता और उसके बाद के विवाह की वैधता को स्पष्ट करते हुए केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि कोई पति अपनी शादी को केवल इस आधार पर अमान्य घोषित करने की मांग नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी के पिछले विवाह का तलाक का फरमान उनकी शादी के दिन ही कुछ घंटों बाद आया था।
जस्टिस देवन रामचंद्रन और जस्टिस एम.बी. स्नेहलता की खंडपीठ ने कहा कि जब पिछला तलाक आपसी सहमति से हुआ हो और पूर्व पति द्वारा उसे चुनौती न दी गई हो, तो नए पति को ऐसी तकनीकी खामियों के आधार पर बाद में विवाह को शून्य घोषित करने का कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पति को अपनी तलाक की याचिका में यह दलील शामिल करने की अनुमति दी गई थी।
विवाह विवाद की पृष्ठभूमि

यह मामला 28 दिसंबर, 2007 को विवाहित एक दंपति से संबंधित है। पति ने शुरू में विवाह की वैधता को स्वीकार करते हुए तलाक के लिए याचिका (O.P.(HMA)No.29/2023) दायर की थी। बाद में, उसने अपनी याचिका में संशोधन के लिए एक आवेदन दायर किया और एक नया दावा पेश किया कि विवाह शून्य और अमान्य है। उसका तर्क यह था कि उसकी पत्नी का पहले पति से तलाक कोल्लम की फैमिली कोर्ट द्वारा उसी दिन दिया गया था जिस दिन उनकी शादी हुई थी, लेकिन कुछ घंटे बाद। उसने दलील दी कि सुबह 10 बजे उनका विवाह समारोह अदालत के फैसले से पहले हुआ, जो उसके अनुसार सुबह 11 बजे के बाद सुनाया गया था, जिससे उनका मिलन अमान्य हो गया। फैमिली कोर्ट ने इस संशोधन की अनुमति दे दी, जिसके कारण पत्नी ने हाईकोर्ट में अपील की।
विवाह कानून पर तर्क
प्रतिवादी-पति ने अपने वकील श्री के.आर. अरुण कृष्णन के माध्यम से, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 15 पर बहुत अधिक भरोसा किया। उन्होंने तर्क दिया कि 28 दिसंबर, 2007 को उनकी पत्नी द्वारा उनसे विवाह करना गैर-कानूनी था, क्योंकि उनके पहले विवाह के तलाक के फरमान के खिलाफ अपील दायर करने का समय समाप्त नहीं हुआ था।
याचिकाकर्ता-पत्नी, जिसका प्रतिनिधित्व श्री जॉनसन गोमेज़ ने किया, ने प्रतिवाद किया कि पति की तलाक की मूल याचिका ने विवाह को कानूनी रूप से स्वीकार किया था। संशोधन के माध्यम से एक विरोधाभासी दलील पेश करने की मांग की गई, जिससे तलाक की याचिका को वैकल्पिक राहत के रूप में मांगे बिना ही अमान्यता की याचिका में बदल दिया गया।
विवाह की वैधता पर हाईकोर्ट का विश्लेषण
हाईकोर्ट ने सबसे पहले हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 के आवेदन की जांच की। उसने पाया कि पत्नी का पिछला तलाक अधिनियम की धारा 13B के तहत आपसी सहमति से हुआ था, जहां अपील की संभावना “दूर की कौड़ी” है।
अहम बात यह है कि पीठ ने इस चुनौती को उठाने के लिए पति के कानूनी अधिकार (locus standi) पर ही सवाल उठाया। अदालत ने तर्क दिया कि अपील की अवधि समाप्त होने से पहले किए गए विवाह के खिलाफ एक संभावित कानूनी चुनौती तलाकशुदा पति-पत्नी द्वारा की जा सकती है। इस मामले में, पत्नी के पूर्व पति ने कभी भी उसके पुनर्विवाह को चुनौती नहीं दी। अदालत ने कहा, “जब याचिकाकर्ता के पूर्व पति द्वारा उसके बाद के विवाह को कोई चुनौती नहीं दी गई है, तो हम यह समझने में विफल हैं कि प्रतिवादी (पति) अब यह कैसे कह सकता है कि उसके साथ उसका विवाह शून्य और अमान्य है।”
फैसले में फैमिली कोर्ट द्वारा अनुमति दी गई प्रक्रियात्मक अनियमितता को भी अस्वीकार कर दिया गया। संशोधन की अनुमति देकर, याचिका में दो परस्पर विरोधी स्थितियाँ थीं: पहली, कि विवाह वैध है और इसे तलाक द्वारा भंग किया जाना चाहिए, और दूसरी, कि विवाह अपनी स्थापना से ही शून्य है। अदालत ने इसे “दो विरोधाभासी धाराओं का एक परिदृश्य” बनाने के रूप में वर्णित किया।
निर्णय
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि पति इन आधारों पर विवाह को चुनौती नहीं दे सकता था और संशोधन से विरोधाभासी दलीलें सामने आईं, हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि फैमिली कोर्ट ने त्रुटि की थी। इसने पत्नी की याचिका को स्वीकार कर लिया और पति की मूल याचिका में संशोधन की अनुमति देने वाले आदेश को रद्द कर दिया।