कर्नाटक हाईकोर्ट ने विधानसभा सदस्यों (एमएलए) और विधान परिषद सदस्यों (एमएलसी) सहित 42 विधायकों को कैबिनेट रैंक दिए जाने के राज्य सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली जनहित याचिका (पीआईएल) पर 21 फरवरी को सुनवाई तय की है। यह जनहित याचिका स्थानीय निवासी और कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कर्मचारी सूरी पायला ने दायर की थी।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि इन विधायकों को कैबिनेट का दर्जा दिए जाने से उन्हें उच्च वेतन, आधिकारिक वाहन, ड्राइवर, ईंधन भत्ते, मकान किराया भत्ते और चिकित्सा प्रतिपूर्ति जैसे महत्वपूर्ण वित्तीय लाभ मिलते हैं। पायला का तर्क है कि ये भत्ते “लाभ का पद” बनाते हैं, जिससे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 191 का उल्लंघन होता है, जो विधायकों को ऐसे पदों पर रहने से अयोग्य ठहराता है।
मुख्य न्यायाधीश एन वी अंजारिया और न्यायमूर्ति एम आई अरुण की खंडपीठ के समक्ष प्रस्तुत इस मामले ने ऐसी नियुक्तियों की संवैधानिक वैधता पर चिंता जताई है। याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता जे साई दीपक ने संवैधानिक उल्लंघन को उजागर करते हुए कहा कि विधायकों को विभिन्न बोर्डों और निगमों के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करना स्वीकार्य है, लेकिन उन्हें कैबिनेट का दर्जा देना अनुच्छेद 164 (1 ए) द्वारा निर्धारित संवैधानिक सीमाओं से परे है। यह अनुच्छेद अनावश्यक सरकारी विस्तार को रोकने के लिए मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित करता है।
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राज्य सरकार ने 26 जनवरी को एक आदेश जारी किया था, जिसमें 34 अतिरिक्त विधायकों को कैबिनेट रैंक दिया गया था, कुल 42 ऐसे हैं। इस कार्रवाई की आलोचना एक ही अधिसूचना के माध्यम से सरकार के आकार को बढ़ाने की क्षमता के लिए की गई है।
कार्यवाही के दौरान, मुख्य न्यायाधीश अंजारिया ने इन नियुक्तियों की व्यापक प्रकृति पर सवाल उठाया, जो एक ही सरकारी अधिसूचना से स्पष्ट हो गई। अदालत ने वरिष्ठ अधिवक्ता दीपक को मामले पर वर्चुअली बहस करने के बजाय व्यक्तिगत रूप से बहस करने के लिए प्राथमिकता दी, जिससे बाद की तारीख के लिए स्थगन हो गया।
जनहित याचिका में इन नियुक्तियों को कई संवैधानिक आधारों पर चुनौती दी गई है, जिनमें अनुच्छेद 102, 191 और 164 के संभावित उल्लंघन के साथ-साथ कर्नाटक विधानमंडल (अयोग्यता निवारण) अधिनियम, 1956 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 10 शामिल हैं। 1964 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि ऐसे पदों पर आसीन विधायकों को लाभ के पद पर रहने के कारण अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। साथ ही चेतावनी दी है कि ये नियुक्तियां एक खतरनाक मिसाल कायम करती हैं जो विधायी अखंडता को कमजोर कर सकती हैं।