कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि यदि कोई जैविक पिता अपने नाबालिग बेटे को गोद लेने की प्रक्रिया पर स्पष्ट रुख अपनाने से इनकार करता है, तो उसकी चुप्पी को अप्रत्यक्ष सहमति (implied consent) के रूप में माना जाएगा।
यह आदेश उस मामले में आया जिसमें एक तलाकशुदा महिला ने दोबारा विवाह करने के बाद अपने वर्तमान पति के साथ मिलकर अपने 16 वर्षीय पुत्र को औपचारिक रूप से गोद लेने के लिए केंद्रीय दत्तक संसाधन प्राधिकरण (CARA) से संपर्क किया। तलाक के समय फैमिली कोर्ट ने महिला को स्थायी अभिरक्षा और संरक्षकता प्रदान की थी और यह भी दर्ज किया था कि पिता ने अभिरक्षा और मुलाकात के सभी अधिकार छोड़ दिए हैं। इसके बावजूद राज्य दत्तक संसाधन एजेंसी ने प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए पिता की लिखित सहमति मांगी।
मामला हाईकोर्ट पहुंचने पर पिता के वकील ने कहा कि वह इस विषय पर “कोई निश्चित रुख नहीं अपनाना चाहते।” वरिष्ठ अधिवक्ता विक्रम हुल्गोल (अमाइकस क्यूरी) और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अरविंद कामथ (CARA की ओर से) ने दलील दी कि पिता का यह रवैया अप्रत्यक्ष सहमति माना जाना चाहिए, क्योंकि उनके पास विरोध का कोई ठोस कारण नहीं है और बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।

न्यायमूर्ति बी.एम. श्याम प्रसाद ने इन दलीलों से सहमति जताते हुए कहा कि यदि पिता की चुप्पी को सहमति नहीं माना गया तो लड़का—जिसने स्वयं अपनी मां और सौतेले पिता द्वारा गोद लिए जाने की इच्छा व्यक्त की है—परिवार का हिस्सा बनने से मिलने वाले सम्पूर्ण लाभों से वंचित हो जाएगा। कोर्ट ने माना कि पिता की चुप्पी गोद लेने की सहमति है।
इसके अनुसार हाईकोर्ट ने राज्य दत्तक संसाधन एजेंसी और जिला बाल संरक्षण इकाई को गोद लेने की प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया। साथ ही यह भी कहा कि याचिकाकर्ता सभी अधिकारियों के समक्ष इस आदेश को जैविक पिता की सहमति का प्रमाण मानकर उपयोग कर सकते हैं।