सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किशोर न्याय बोर्ड (JJB) के पास न तो अपनी पूर्ववर्ती निर्णयों की समीक्षा करने का अधिकार है और न ही वह बाद की कार्यवाहियों में अपने पूर्व रुख से भिन्न निर्णय ले सकता है। यह टिप्पणी रजनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में की गई, जिसमें एक हत्या के आरोपी को किशोर घोषित किए जाने और उसे जमानत दिए जाने के हाईकोर्ट के निर्णय को मृतक की मां (प्रथम अपीलकर्ता) द्वारा चुनौती दी गई थी।
क्रिमिनल अपील संख्या 603 और 2569/2025 के तहत यह मामला सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष आया, जिसमें दो मुख्य प्रश्न थे: क्या आरोपी (प्रतिवादी संख्या 2) अपराध के समय किशोर था, और क्या हाईकोर्ट द्वारा उसे दी गई जमानत विधिसंगत थी। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भूयान की पीठ ने निचली अदालतों और हाईकोर्ट के निर्णयों को सही ठहराते हुए दोनों अपीलों को खारिज कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
प्रतिवादी संख्या 2 पर थाना मेडिकल कॉलेज, मेरठ में अपराध संख्या 80/2021 (धारा 302/201/34 आईपीसी) और 97/2021 (शस्त्र अधिनियम) के तहत मामला दर्ज हुआ था। उसकी मां ने किशोर घोषित किए जाने के लिए JJB के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किए, जिन्हें 27 अगस्त 2021 को खारिज कर दिया गया। बोर्ड ने आरोपी को मेडिकल परीक्षण के आधार पर वयस्क माना।
इसके विरुद्ध आरोपी की मां ने अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश, विशेष न्यायालय (POCSO), मेरठ के समक्ष अपील की, जिन्होंने 14 अक्टूबर 2021 को JJB के निर्णय को पलटते हुए उसे किशोर घोषित कर दिया। हाई स्कूल प्रमाणपत्र के अनुसार आरोपी की जन्म तिथि 8 सितंबर 2003 थी, जिससे वह 17 वर्ष, 3 माह और 10 दिन का पाया गया।
इस निर्णय को मृतक की मां ने हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसे 13 मई 2022 को खारिज कर दिया गया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (मृतक की मां) ने तर्क दिया कि प्रतिवादी संख्या 2 ने कानून का दुरुपयोग कर के खुद को किशोर घोषित कराया और गंभीर अपराध (हत्या) के लिए उत्तरदायित्व से बचने का प्रयास किया। उन्होंने यह भी कहा कि मेडिकल परीक्षण में उसकी उम्र लगभग 21 वर्ष बताई गई थी और उसके विरुद्ध अन्य गंभीर आपराधिक मामले भी लंबित थे।
दूसरी ओर, प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि विद्यालय प्रमाणपत्र और नगर निगम का जन्म प्रमाणपत्र धारा 94(2) JJ अधिनियम, 2015 के तहत निर्णायक हैं, और JJB को मेडिकल परीक्षण का सहारा नहीं लेना चाहिए था। उन्होंने कहा कि बोर्ड द्वारा दस्तावेजों की अनदेखी कर मेडिकल परीक्षण का आदेश देना कानून के विपरीत था।
न्यायालय का विश्लेषण
पीठ ने JJ अधिनियम, 2015 की धारा 94(2) और JJ नियमावली, 2007 के नियम 12(3) का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि उम्र निर्धारण के लिए प्राथमिकता से स्कूल प्रमाणपत्र, उसके बाद जन्म प्रमाणपत्र, और केवल उनके अभाव में ही मेडिकल परीक्षण का सहारा लिया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा:
“जब स्कूल प्रमाणपत्र और नगर निगम द्वारा जारी जन्म प्रमाणपत्र उपलब्ध थे, तो JJB द्वारा ऑसिफिकेशन टेस्ट (हड्डी जांच) करवाना विधिसम्मत नहीं था। कानून इस विषय में पूर्णतः स्पष्ट है।”
न्यायालय ने यह भी इंगित किया कि JJB ने एक पूर्ववर्ती निर्णय (2000 में दर्ज एक अन्य अपराध) में आरोपी की जन्मतिथि 08.09.2003 स्वीकार की थी, और बाद में उसे अस्वीकार करना JJB के अधिकार क्षेत्र से बाहर था:
“JJB को बाद की कार्यवाही में यह कहने का अधिकार नहीं है कि आरोपी की जन्मतिथि 08.09.2003 नहीं है। ऐसा करना उसकी पूर्ववर्ती निर्णय की समीक्षा करने के बराबर होगा, जिसकी शक्ति JJ अधिनियम, 2015 में नहीं दी गई है।”
पीठ ने रिशीपाल सिंह सोलंकी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) 8 SCC 602 और यूनियन टेरिटरी ऑफ जम्मू और कश्मीर बनाम शुभम सांगरा (2022 INSC 1205) के मामलों का संदर्भ देते हुए कहा कि जब विधिसम्मत दस्तावेज उपलब्ध हों, तो मेडिकल राय पर निर्भर नहीं किया जा सकता।
जमानत और प्रारंभिक मूल्यांकन
जमानत के विषय में, न्यायालय ने कहा कि JJB और सत्र न्यायालय द्वारा जमानत अस्वीकार की गई थी, किंतु हाईकोर्ट ने यह कहते हुए जमानत दी कि गंभीरता मात्र के आधार पर किशोर को जमानत से वंचित नहीं किया जा सकता जब तक यह साबित न हो कि उसकी रिहाई से कोई खतरा उत्पन्न होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि आरोपी पिछले तीन वर्षों से जमानत पर है और उसके द्वारा किसी प्रकार के दुरुपयोग का कोई रिकॉर्ड नहीं है। अतः जमानत आदेश में हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं था।
पीठ ने यह भी उल्लेख किया कि JJB ने धारा 15 के अंतर्गत प्रारंभिक मूल्यांकन किया था और यह पाया था कि आरोपी मानसिक और शारीरिक रूप से अपराध करने में सक्षम था और अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता रखता था। यह आदेश 10 दिसंबर 2021 को पारित हुआ था और इसे चुनौती नहीं दी गई।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया और कहा कि हाईकोर्ट एवं सत्र न्यायालय के निर्णयों में हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं है। न्यायालय ने दोहराया:
“JJ अधिनियम, 2015 के तहत JJB को अपनी ही पूर्व निर्णयों की समीक्षा करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।”
मामले में किसी पक्ष को लागत (cost) नहीं दी गई।