दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ हटाने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू करने से पहले केंद्र सरकार ने प्रमुख राजनीतिक दलों से संपर्क साधना शुरू कर दिया है। यह कदम उस इन-हाउस जांच रिपोर्ट के बाद उठाया गया है जिसमें कथित तौर पर उनके आवास से बड़ी मात्रा में बेहिसाब नकदी मिलने के आरोपों की पुष्टि की गई है।
14 मार्च को जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित आवास पर आग लगने की घटना के बाद दमकलकर्मियों को वहां से कथित तौर पर भारी मात्रा में नकदी मिली थी। इसके बाद मामले की गंभीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 25 मार्च को एक इन-हाउस समिति का गठन किया था।
इस तीन सदस्यीय समिति में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जीएस संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जज अनु शिवरामन शामिल थीं। समिति ने 4 मई को अपनी रिपोर्ट भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंप दी।

सूत्रों के अनुसार, समिति की रिपोर्ट गंभीर प्रकृति की है और उसमें जस्टिस वर्मा को तुरंत इस्तीफा देने का विकल्प देने की सिफारिश की गई है। यदि वे इस्तीफा नहीं देते हैं, तो यह रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजी जाएगी, जिससे उनके खिलाफ औपचारिक हटाने की प्रक्रिया शुरू हो सकेगी।
सरकारी सूत्रों के अनुसार, सांसदों से हस्ताक्षर एकत्र करने की प्रक्रिया अगले सप्ताह शुरू की जा सकती है ताकि संसद के किसी एक सदन में हटाने का प्रस्ताव लाया जा सके। संविधान के अनुच्छेद 217 को अनुच्छेद 124(4) के साथ पढ़ते हुए इस प्रक्रिया को अंजाम दिया जाएगा, जो हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को हटाने की विधिक प्रक्रिया को परिभाषित करता है।
हालांकि तकनीकी रूप से “महाभियोग” शब्द केवल राष्ट्रपति के लिए प्रयुक्त होता है, लेकिन न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया भी संविधान में निर्धारित एक कठोर और समानांतर प्रक्रिया है।
एक बार आवश्यक संख्या में सांसदों के हस्ताक्षर हो जाने के बाद, आरोपों की जांच के लिए एक औपचारिक समिति का गठन किया जाएगा, जिसके बाद संसद में इस पर बहस और मतदान का मार्ग प्रशस्त होगा।
यह घटनाक्रम भारतीय न्यायपालिका के लिए एक असाधारण और गंभीर क्षण को दर्शाता है, जहां न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संविधान में प्रदत्त सबसे सख्त प्रक्रिया अपनाई जा रही है।