जस्टिस यशवंत वर्मा ने महाभियोग की सिफारिश रद्द कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर की याचिका, जांच प्रक्रिया पर उठाए सवाल

दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास पर इस साल मार्च में जली हुई मुद्रा की बरामदगी के बाद विवादों में घिरे जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। इसमें उन्होंने इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट और उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफारिश को चुनौती दी है।

याचिका में जस्टिस वर्मा ने 8 मई की उस सिफारिश को रद्द करने की मांग की है, जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने संसद से उनके महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने का आग्रह किया था। जस्टिस वर्मा का कहना है कि तीन जजों की जांच समिति की रिपोर्ट “अस्थिर” है और पूरी जांच प्रक्रिया ने उनके संवैधानिक अधिकारों और व्यक्तिगत अधिकारों को नजरअंदाज किया।

यह याचिका ऐसे समय में दाखिल हुई है जब अगले हफ्ते से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में सरकार उनके खिलाफ महाभियोग प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी में है।

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प्रक्रिया पर उठाए सवाल

जस्टिस वर्मा का आरोप है कि जस्टिस शील नागू (तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट), जस्टिस जी.एस. संधावालिया (तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट) और जस्टिस अनु शिवरामन (जज, कर्नाटक हाईकोर्ट) की समिति ने उन्हें पूरा और निष्पक्ष अवसर दिए बिना प्रतिकूल निष्कर्ष निकाल लिए।

उनका कहना है कि उनके आवास के बाहरी हिस्से में कुछ नकद राशि मिलने की बात तो मानी जा सकती है, लेकिन स्वामित्व, प्रमाणिकता और अन्य जरूरी तथ्य स्थापित किए बिना समिति ने जल्दबाजी में अपनी प्रक्रिया पूरी कर ली। जस्टिस वर्मा के अनुसार, जांच में आरोपों को साबित करने का बोझ समिति की बजाय उनके ऊपर डाल दिया गया, और पूरी प्रक्रिया एक पूर्वनिर्धारित नतीजे की ओर बढ़ी।

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सूत्रों के मुताबिक, जस्टिस वर्मा ने यह भी कहा कि जांच की समयसीमा सिर्फ जल्दी नतीजे तक पहुंचने की इच्छा से तय की गई थी, जिसमें प्रक्रियात्मक न्याय की अनदेखी की गई।

विवाद की पृष्ठभूमि

14 मार्च को जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित आवास के बाहरी हिस्से में आग लग गई थी। दमकलकर्मियों ने वहां से बोरियों में भरी जली हुई नकदी बरामद की। इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने CJI को सूचना दी, और 22 मार्च को तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन हुआ।

समिति ने 3 मई को अपनी 64-पन्नों की रिपोर्ट सौंपते हुए कहा कि जस्टिस वर्मा के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत तो नहीं है, लेकिन “मजबूत अप्रत्यक्ष साक्ष्य” उनके “गुप्त या सक्रिय नियंत्रण” की ओर इशारा करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया, “न्यायिक पद का अस्तित्व नागरिकों के विश्वास पर आधारित है। इसमें कोई कमी जनता का विश्वास डगमगा देती है।”

रिपोर्ट के मुताबिक, एक बार नकदी मिलने की पुष्टि हो जाने के बाद जस्टिस वर्मा पर यह भार था कि वे उचित स्पष्टीकरण दें, लेकिन उन्होंने केवल साजिश का दावा करते हुए सब नकार दिया। इसके बाद उन्हें न्यायिक कार्यों से मुक्त कर इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया।

राजनीतिक और कानूनी हलचल

जैसा कि जून में सामने आया, जस्टिस वर्मा ने CJI खन्ना के इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के सुझाव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ऐसा करना “मूल रूप से अन्यायपूर्ण” प्रक्रिया को स्वीकार करने जैसा होगा। 6 मई को लिखे पत्र में उन्होंने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन का हवाला देते हुए पूरी प्रक्रिया और निष्कर्षों पर पुनर्विचार की मांग की।

इस पूरे मामले ने राजनीतिक रंग भी ले लिया है। संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने हाल में पुष्टि की कि सरकार विपक्षी दलों से संपर्क कर रही है ताकि मानसून सत्र के दौरान कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा प्रस्तावित महाभियोग प्रस्ताव को समर्थन मिल सके।

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वहीं, उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने 19 मई को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में इन-हाउस जांच प्रक्रिया की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह “अप्रभावी” है और इसकी बजाय औपचारिक आपराधिक जांच होनी चाहिए थी।

विपक्ष की समानांतर तैयारी

इसी बीच, विपक्षी INDIA गठबंधन के कुछ सदस्य इलाहाबाद हाईकोर्ट के विवादित जज जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ लंबे समय से लंबित महाभियोग प्रस्ताव को फिर से उठाने की तैयारी कर रहे हैं।

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दिसंबर 2024 में, 55 विपक्षी सांसदों ने विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में दिए गए भाषण को लेकर जस्टिस यादव के खिलाफ महाभियोग नोटिस दिया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर इन-हाउस जांच पर विचार किया था, लेकिन राज्यसभा सचिवालय से मार्च में विशेष अधिकार संबंधी संचार मिलने के बाद यह विचार छोड़ दिया गया। तब से इस पर कोई प्रगति नहीं हुई।

सांसद कपिल सिब्बल, जयराम रमेश और साकेत गोखले, जो नोटिस पर हस्ताक्षरकर्ता हैं, सरकार की कथित निष्क्रियता पर सवाल उठा रहे हैं, विशेषकर जस्टिस यादव के मामले में।

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