सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनी सहयोग अब कोई आकांक्षा नहीं, बल्कि न्यायपालिका के रोजमर्रा के कार्य का अनिवार्य हिस्सा बन चुका है।
वे यहां आयोजित वार्षिक वाद-विवाद सम्मेलन ‘कोमिटी ऑफ कोर्ट्स एंड इंटरनेशनल लीगल कोऑपरेशन इन प्रैक्टिस’ को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा, “यह याद रखना चाहिए कि न्याय कोई ऐसा वस्तु नहीं है जिसे राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर सीमित रखा जाए; यह एक सार्वभौमिक आकांक्षा है। न्यायालयों की समानता (comity of courts) और अंतरराष्ट्रीय कानूनी सहयोग ही वह साधन हैं, जिनसे हम इस आकांक्षा के करीब पहुंचते हैं।”

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि आज के दौर में वाद-विवाद (litigation) पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ले चुका है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, “अब विवाद किसी एक देश की सीमाओं तक सीमित नहीं रहते। संपत्ति सिंगापुर में हो सकती है, साक्ष्य आयरलैंड के सर्वर पर, गवाह कनाडा में और कारण भारत में उत्पन्न होता है।”
उन्होंने प्रश्न उठाया, “हम न्याय के रक्षक होने के नाते इस पारस्परिकता को उलझाव में बदलने से कैसे रोकें?”
इसका उत्तर उन्होंने ‘कोमिटी ऑफ कोर्ट्स’ सिद्धांत में बताया — जो “सार्वभौमिकता के आत्मसमर्पण का नहीं, बल्कि आपसी सम्मान, समन्वय और विश्वास का प्रतीक है।”
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि 21वीं सदी में कोमिटी अब केवल शिष्टाचार नहीं रही, बल्कि न्यायिक सहयोग की “व्यावहारिक आवश्यकता” बन गई है।
उन्होंने कहा, “इसके बिना सीमा-पार विवाद समाधान अराजकता में बदल सकता है — परस्पर विरोधी निर्णय, लगातार मंच चुनने की प्रवृत्ति और कानून के शासन में जनता का विश्वास खत्म हो सकता है। लेकिन कोमिटी के माध्यम से हम न्याय प्रक्रिया में पूर्वानुमेयता, निष्पक्षता और दक्षता ला सकते हैं।”
उन्होंने जोड़ा, “अंतरराष्ट्रीय कानूनी सहयोग अब कोई आकांक्षा नहीं रहा; यह हमारे दैनिक न्यायिक जीवन का हिस्सा बन चुका है।”
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने जेट एयरवेज (इंडिया) लिमिटेड बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (2019) मामले का उल्लेख किया, जिसमें राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय अधिकरण (NCLAT) ने नीदरलैंड में चल रही समानांतर दिवाला कार्यवाही को मान्यता दी थी और भारतीय तथा डच प्रशासकों के बीच सहयोग का निर्देश दिया था।
उन्होंने कहा, “यह निर्णय सीमा-पार दिवाला सहयोग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।”
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने स्वीकार किया कि इस वैश्विक सहयोग में कई चुनौतियां हैं — जैसे सार्वभौमिकता का टकराव, तकनीकी जटिलताएं, और संस्कृतिक व मानकगत अंतर।
उन्होंने इनसे निपटने के लिए कुछ ठोस सुझाव दिए:
- न्यायपालिका के बीच नियमित द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संवाद को संस्थागत रूप देना ताकि आपसी विश्वास विकसित हो।
- न्यायाधीशों और वकीलों के लिए तुलनात्मक न्यायशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय संधियों और विदेशी विधिक प्रणालियों पर विशेष प्रशिक्षण आयोजित किया जाए।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग परस्पर कानूनी सहायता, साक्ष्य साझा करने और विभिन्न देशों के पक्षकारों की वर्चुअल सुनवाई के लिए किया जाए।
- “सीमा-पार मुद्दों पर न्यायिक दृष्टिकोणों का एक वैश्विक संग्रह” तैयार किया जाए, जिससे दुनिया भर की अदालतों को संदर्भ सामग्री मिल सके।
अंत में न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि न्याय की आत्मा को तकनीकीता से ऊपर रखना चाहिए।
“अक्सर हम प्रक्रिया की शुद्धता में इतने उलझ जाते हैं कि तकनीकी पहलू वास्तविक न्याय पर हावी हो जाते हैं। यदि न्याय प्रक्रिया की दासी बन जाए, तो वह जनता का विश्वास खो देता है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग में भी यही भावना सर्वोपरि रहनी चाहिए — न्याय को कभी भी तकनीकीता की अत्याचारिता के आगे झुकना नहीं चाहिए।”