न्यायपालिका में जवाबदेही, पारदर्शिता और विविधता लाने की जरूरत: जस्टिस एस. मुरलीधर

उड़ीसा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और हाल ही में प्रकाशित पुस्तक “इनकम्प्लीट जस्टिस: द सुप्रीम कोर्ट ऐट 75” के संपादक जस्टिस एस. मुरलीधर ने भारतीय न्यायपालिका में बड़े सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया है। उन्होंने न्यायाधीशों की जवाबदेही, न्यायिक ट्रांसफर में पारदर्शिता और बेंच पर विविध प्रतिनिधित्व को जरूरी बताया। द लल्लनटॉप को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने वर्तमान न्यायिक कार्यप्रणाली की कड़ी आलोचना की और सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण के पुनर्मूल्यांकन की बात कही।

अयोध्या फैसला और मध्यस्थता का छूटा अवसर

जस्टिस मुरलीधर ने अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मत फैसले की आलोचनात्मक समीक्षा की। उन्होंने चिंता जताई कि कोर्ट ने मध्यस्थता की संभावना को पर्याप्त रूप से नहीं परखा, जबकि मध्यस्थता पैनल ने “फाइनल रिपोर्ट” दी थी कि कुछ पक्ष, खासकर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, समझौते पर राज़ी हो गए थे। उन्होंने कहा कि दशकों से चले आ रहे विवाद में थोड़े और प्रयास से पक्षकारों को समाधान के करीब लाया जा सकता था। उनके अनुसार, इस तरह के संवेदनशील मामले में अदालत को “आस्था और विश्वास” के बजाय कानून को सख्ती से लागू करना चाहिए था।

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न्यायिक ट्रांसफर का संदिग्ध समय और अपारदर्शिता

दिल्ली हाईकोर्ट से पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में अपने ट्रांसफर पर बोलते हुए उन्होंने आधी रात को जारी अधिसूचना के समय पर सवाल उठाया। उन्होंने बताया कि जिस दिन उन्होंने दिल्ली दंगों और भड़काऊ भाषण के मामलों में सुनवाई कर शक्तिशाली व्यक्तियों पर कार्रवाई का निर्देश दिया, उसी दिन रात लगभग 11:35 या 11:40 बजे उनका ट्रांसफर नोटिफिकेशन जारी हुआ। उन्होंने कहा कि ट्रांसफर की प्रक्रिया अपारदर्शी है और आमतौर पर जजों को वास्तविक कारण नहीं बताए जाते। इसे उन्होंने “प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन” बताते हुए न्यायपालिका की बड़ी खामी कहा। उन्होंने जस्टिस मदन बी. लोकुर की इसी तरह की चिंताओं का भी ज़िक्र किया।

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न्यायिक जवाबदेही और अनुशासन की वकालत

जस्टिस मुरलीधर ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के अनुशासनात्मक मामलों से निपटने के लिए अधिक संरचित व्यवस्था की मांग की। उन्होंने कहा कि मौजूदा प्रणाली में केवल इम्पीचमेंट के ज़रिए ही हटाने का प्रावधान है, लेकिन “कमतर गलतियों” के लिए कोई कारगर तरीका नहीं है। उन्होंने “सज़ा के तौर पर ट्रांसफर” को आलसी तरीका करार दिया।

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जस्टिस वर्मा का मामला और जांच की कमी पर सवाल

उन्होंने जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में चिंता जताई, जिसमें उनके आउथाउस से बड़ी मात्रा में नकदी मिलने की खबर थी, लेकिन कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई। उन्होंने दिल्ली पुलिस के सहयोग न करने पर सवाल उठाया और कहा कि फॉरेंसिक जांच जैसी प्रक्रियाएं पुलिस सहयोग के बिना संभव नहीं। उन्होंने इसे “दोहरा मापदंड” बताते हुए कहा कि नकदी बरामदगी जैसे मामलों में वीडियो फुटेज सार्वजनिक की जाती है, जबकि यौन उत्पीड़न जैसे आरोपों में गोपनीयता बरती जाती है।

बेंच पर विविधता और व्यापक अनुभव की ज़रूरत

जस्टिस मुरलीधर ने पत्रकार पी. साईनाथ की इस टिप्पणी से सहमति जताई कि सुप्रीम कोर्ट ग्रामीण भारत की वास्तविकताओं से कट हुआ है। उन्होंने कहा कि अक्सर जो वकील जज बनते हैं, उनका सामाजिक-आर्थिक अनुभव सीमित होता है, जिससे वे हाशिए पर मौजूद तबकों की चुनौतियों को ठीक से नहीं समझ पाते। उन्होंने कहा कि संवैधानिक अदालतों में जजों को व्यापक मुद्दों से निपटना पड़ता है, इसलिए विविध अनुभव और प्रतिनिधित्व आवश्यक है।

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आपराधिक अवमानना पर सुधार और हास्यभाव का आग्रह

आपराधिक अवमानना के उपयोग पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायपालिका ने “पिछड़ेपन” का परिचय दिया है और अन्य देशों की तुलना में इसे अधिक बार लागू किया जाता है। उन्होंने कहा कि जजों को “मजबूत कंधे और हास्यभाव” रखना चाहिए ताकि आलोचना को सह सकें, न कि हर छोटी प्रतिक्रिया पर संवेदनशील हो जाएं।

“इनकम्प्लीट जस्टिस”: न्यायपालिका की भूमिका पर चिंतन

अपनी पुस्तक “इनकम्प्लीट जस्टिस” के शीर्षक पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 142 से प्रेरित है, जो सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” करने का अधिकार देता है। लेकिन व्यवहार में कई बार फैसले अधूरे लगते हैं या मुकदमों में उलझनें बढ़ा देते हैं।

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