न्यायिक अधिकारी के नाम पर बकाया वसूली एजेंट की भूमिका निभाना अनुशासनहीनता: हाईकोर्ट ने जज की बर्खास्तगी को सही ठहराया

न्यायिक नैतिकता और पद के दुरुपयोग को लेकर एक सख्त संदेश देते हुए, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने पूर्व अतिरिक्त सिविल जज (सीनियर डिवीजन) प्रदीप सिंघल की बर्खास्तगी को सही ठहराया है। अदालत ने कहा कि जज के तौर पर उनका व्यवहार “डि फैक्टो रिकवरी एजेंट” की भूमिका निभाने जैसा था, जो कि एक न्यायिक अधिकारी के आचरण के प्रतिकूल और अनुचित है

मुख्य न्यायाधीश शील नागू और न्यायमूर्ति सुमीत गोयल की खंडपीठ ने यह फैसला CWP-6448-2024 (O&M) में सोमवार को सुनाया। यह याचिका सिंघल द्वारा उनकी सेवा समाप्ति को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि अनुशासनात्मक जांच में कोई प्रक्रिया संबंधी या कानूनी खामी नहीं पाई गई।

मामले की पृष्ठभूमि

प्रदीप सिंघल ने 2011 में पंजाब सिविल सेवा (न्यायिक) में जॉइन किया था और जगराओं में सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के पद तक पहुंचे। दिसंबर 2020 में स्थानीय वकीलों और वादकारियों की शिकायतों के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था, और 14 जुलाई 2021 को चार्जशीट जारी की गई थी।

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मुख्य आरोप यह थे कि सिंघल ने निजी पक्षकारों, विशेष रूप से पंकज मित्तल और विकास मित्तल की मदद करते हुए सात आपराधिक शिकायतों की सुनवाई की, वो भी एक रटे-रटाए और यांत्रिक तरीके से। आरोप था कि उन्होंने अपने न्यायालय का अधिकार क्षेत्र गलत तरीके से गढ़ा और धारा 202 CrPC के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना समन जारी किए।

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यह भी आरोप था कि सिंघल ने पंजाब के बाहर, जैसे कि महाराष्ट्र और बिहार में समन भिजवाने के लिए कोर्ट स्टाफ का दुरुपयोग किया। अन्य आरोपों में चालान बुक में वित्तीय अनियमितता और एक प्रक्रिया सर्वर को धमकाकर साक्ष्य छिपाने की कोशिश भी शामिल थी।

जांच और निष्कर्ष

एक विस्तृत तथ्य-जांच के बाद, जांच अधिकारी ने 7 जनवरी 2023 को रिपोर्ट सौंपी, जिसमें आरोप 1, 2 और 4 को प्रमाणित पाया गया।

हाईकोर्ट की विजिलेंस और अनुशासन समिति ने 31 जुलाई 2023 को इन निष्कर्षों को स्वीकार कर लिया और बर्खास्तगी की सिफारिश की। फुल कोर्ट ने 6 अक्टूबर 2023 को इसे मंजूरी दी, और पंजाब सरकार ने 14 नवंबर 2023 को सिंघल की बर्खास्तगी का आदेश जारी कर दिया

पक्षकारों की दलीलें

वरिष्ठ अधिवक्ता विजय कुमार जिंदल, जिन्होंने अधिवक्ताओं आर. कार्तिकेय, पंकज गौतम और अभिषेक शुक्ला के साथ याचिकाकर्ता की ओर से पक्ष रखा, ने तर्क दिया कि पूरी प्रक्रिया व्यक्तिगत द्वेष के तहत की गई और इसमें दुर्भावना थी। उनका कहना था कि सिंघल ने न्यायिक निष्पक्षता बनाए रखी और उनके खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है।

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वहीं दूसरी ओर, वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव चोपड़ा (हाईकोर्ट की ओर से), उनके साथ रंजीत सिंह कालरा और सेरात, तथा राज्य की ओर से वरिष्ठ उपमहाधिवक्ता सलील सभलोक ने जांच प्रक्रिया का बचाव किया। उन्होंने कहा कि सभी प्रक्रियाएं नियमों के अनुसार हुईं और मौखिक गवाही, मोबाइल रिकॉर्ड और दस्तावेजी साक्ष्य ने आरोपों की पुष्टि की।

अदालत का अवलोकन और निर्णय

कोर्ट ने अपने विस्तृत फैसले में याचिका खारिज करते हुए कहा:

“व्यक्तिगत रूप से ज्ञात शिकायतकर्ताओं के पक्ष में, धारा 202 CrPC की कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना समन जारी करना और उनके निहित स्वार्थों को बढ़ावा देना, एक न्यायिक अधिकारी के लिए अनुचित और अनुशासनहीन आचरण है।”

कोर्ट ने पाया कि सिंघल ने न्यायिक विवेक का दुरुपयोग करते हुए, न्यूट्रल मध्यस्थ के बजाय, निजी पक्षों के लिए “डि फैक्टो रिकवरी एजेंट” की तरह काम किया।

प्रमुख गवाह रवि कुमार (प्रक्रिया सर्वर) की गवाही, जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें मौखिक निर्देशों पर नासिक भेजा गया, और मोबाइल लोकेशन रिकॉर्ड्स के आधार पर कोर्ट ने कहा:

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“ये निष्कर्ष केवल अनुमानों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्यों की सूक्ष्मता से जांच के बाद निकाले गए हैं।”

अदालत ने यह भी दोहराया कि विभागीय जांच में न्यायिक समीक्षा की सीमा सीमित होती है और यह तभी हस्तक्षेप करती है जब प्रक्रिया मनमानी, अनुचित या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध हो:

“हस्तक्षेप का दायरा केवल निष्पक्ष व्यवहार सुनिश्चित करने तक सीमित है, न कि अंतिम निष्कर्ष की वैधता पर।”

अंत में कोर्ट ने जोर दिया:

“न्यायिक अधिकारियों को केवल निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें ऐसा प्रतीत भी होना चाहिए। इस मानक से किसी भी प्रकार की चूक, जनता के न्याय प्रणाली में विश्वास को नुकसान पहुंचाती है।”

कोर्ट ने पाया कि सिंघल को पूरा अवसर दिया गया था और जांच प्रक्रिया प्रक्रियात्मक रूप से उचित थी। इस आधार पर याचिका खारिज करते हुए, हाईकोर्ट ने बर्खास्तगी के आदेश को सही ठहराया

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