सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड के तीन प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा समाप्ति के आदेश को “मनमाना और अवैध” ठहराते हुए रद्द कर दिया है। जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि बर्खास्तगी के आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के घोर उल्लंघन और राज्य के नियुक्ति नियमों के गलत इस्तेमाल के कारण दूषित थे। कोर्ट ने पाया कि शिक्षा विभाग ने शिक्षकों को अयोग्य घोषित करने के लिए उनके व्यावसायिक विषयों में प्राप्त अंकों को गैर-कानूनी रूप से हटा दिया था, जबकि यह आरोप कभी भी मूल कारण बताओ नोटिस का हिस्सा नहीं था।
इस फैसले के साथ, दो अपीलकर्ताओं, रवि उरांव और प्रेमलाल हेंब्रोम की सेवा बहाल कर दी गई है और उन्हें पूरे बकाया वेतन और वरिष्ठता का लाभ मिलेगा। तीसरे अपीलकर्ता, सुरेंद्र मुंडा, जिनका मुकदमे के दौरान निधन हो गया था, के संबंध में कोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें सेवा के दौरान मृत माना जाए और उनके उत्तराधिकारियों को वेतन का पूरा बकाया और अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन करने का अधिकार दिया जाए।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दिसंबर 2015 में धनबाद जिले में इंटरमीडिएट प्रशिक्षित शिक्षक (कक्षा I से V) के रूप में रवि उरांव, प्रेमलाल हेंब्रोम और सुरेंद्र मुंडा की नियुक्ति से शुरू हुआ था। लगभग एक साल बाद, 27 सितंबर, 2016 को उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किए गए, जिसमें आरोप लगाया गया कि वे अपनी इंटरमीडिएट (कक्षा XII) परीक्षा में न्यूनतम 45% अंक हासिल करने की पात्रता मानदंड को पूरा नहीं करते हैं। नोटिस में उनके स्नातक प्रमाणपत्रों की वैधता पर भी सवाल उठाया गया था।

अपने जवाब में, अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि अनुसूचित जनजाति श्रेणी के सदस्य होने के नाते, वे 5% की छूट के हकदार थे, जिसके तहत उन्हें 45% नहीं, बल्कि केवल 40% अंक प्राप्त करने की आवश्यकता थी। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने क्रमशः 42.55%, 40.22% और 41.33% अंक प्राप्त किए थे, जो आवश्यक मानक को पूरा करते थे।
हालांकि, 7 अक्टूबर, 2016 को उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं। बर्खास्तगी के आदेशों में एक नया कारण बताया गया: शिक्षकों ने अपनी इंटरमीडिएट परीक्षा में 40% से कम अंक प्राप्त किए थे। विभाग इस निष्कर्ष पर अपीलकर्ताओं द्वारा उनके व्यावसायिक विषयों में प्राप्त अंकों को बाहर करने के बाद पहुंचा था। विभाग की गणना के अनुसार, अपीलकर्ताओं के अंक क्रमशः 38.56%, 39.78% और 39% थे।
शिक्षकों ने अपनी बर्खास्तगी को झारखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी। एक एकल न्यायाधीश ने उनकी रिट याचिकाओं को स्वीकार करते हुए बर्खास्तगी के आदेशों को रद्द कर दिया। हालांकि, झारखंड राज्य ने अपील दायर की और हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने एकल न्यायाधीश के फैसले को पलटते हुए बर्खास्तगी को बरकरार रखा। इससे व्यथित होकर, अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि उनके प्रतिशत की गणना में उनके व्यावसायिक विषयों से प्राप्त बोनस अंकों को शामिल किया जाना चाहिए था, जैसा कि उनकी अंकतालिकाओं पर मुद्रित विनियमों के अनुसार था। उन्होंने तर्क दिया कि झारखंड प्राथमिक विद्यालय शिक्षक नियुक्ति नियम, 2012 का नियम 21, जिस पर राज्य ने इन अंकों को बाहर करने के लिए भरोसा किया था, केवल मेरिट सूची तैयार करने के लिए लागू था, न कि किसी उम्मीदवार की मूल पात्रता का निर्धारण करने के लिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने तर्क दिया कि उनकी बर्खास्तगी नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन थी, क्योंकि बर्खास्तगी का आधार—व्यावसायिक विषय के अंकों का बहिष्करण—कभी भी मूल कारण बताओ नोटिस का हिस्सा नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर पहुंचने के लिए 2012 के नियमों और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का विस्तृत विश्लेषण किया।
1. पात्रता निर्धारण के लिए नियम 21 का गलत उपयोग
पीठ के लिए फैसला लिखने वाले जस्टिस दत्ता ने कहा कि राज्य द्वारा नियम 21 पर भरोसा करना एक “भारी भूल” थी। कोर्ट ने बताया कि 2012 के नियम अलग-अलग अध्यायों में विभाजित हैं। नियम 4, जो शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) में बैठने की पात्रता को नियंत्रित करता है, अध्याय 2 (“शिक्षक पात्रता परीक्षा”) के अंतर्गत आता है। दूसरी ओर, नियम 21, अध्याय 3 (“नियुक्ति”) के अंतर्गत आता है और इसका शीर्षक स्पष्ट रूप से कहता है कि यह “मेरिट सूची की तैयारी” के लिए है।
2. नैसर्गिक न्याय का घोर उल्लंघन
कोर्ट ने राज्य द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर गहरी चिंता व्यक्त की और इसे एक “ऐसी कार्रवाई जो हमारी अंतरात्मा को झकझोरती है” के रूप में वर्णित किया। फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि अपीलकर्ताओं ने कारण बताओ नोटिस में लगाए गए आरोप (यानी 45% हासिल करने में विफल) का सफलतापूर्वक बचाव किया था। फिर राज्य ने उन्हें एक पूरी तरह से अलग आधार पर बर्खास्त कर दिया—व्यावसायिक अंकों को छोड़कर 40% हासिल करने में विफल—जो उन्हें कभी नहीं बताया गया था।
कोर्ट ने कहा: “उत्तरदाताओं द्वारा लौटाए गए निष्कर्ष कारण बताओ नोटिस में लगाए गए आरोपों से भिन्न थे। अपीलकर्ताओं द्वारा आरोपों का सफलतापूर्वक बचाव करने के बाद, उत्तरदाताओं को ऐसे नोटिसों के साथ आगे बढ़ने से कानूनन रोक दिया गया था।”
अंतिम निर्णय और राहत
इन निष्कर्षों के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने अपीलें स्वीकार कर लीं और खंडपीठ के फैसलों को रद्द कर दिया।
- सेवा समाप्ति के आदेश रद्द कर दिए गए।
- अपीलकर्ता रवि उरांव और प्रेमलाल हेंब्रोम को दिसंबर 2015 में उनकी मूल नियुक्ति की तारीख से निरंतर सेवा में माना जाएगा। वे पूरे बकाया वेतन और वरिष्ठता के हकदार हैं।
- अपीलकर्ता सुरेंद्र मुंडा, जिनका 5 अगस्त, 2024 को निधन हो गया, के लिए कोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें सेवा के दौरान मृत माना जाएगा। उनके उत्तराधिकारी उनकी मृत्यु तक के वेतन के पूरे बकाये के हकदार हैं। कोर्ट ने आगे निर्देश दिया कि उनके उत्तराधिकारी अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन कर सकते हैं।
- सभी बकाया राशि का भुगतान तीन महीने के भीतर किया जाना है।