इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रिट-ब संख्या 1570 सन् 2025 (जय सिंह बनाम राज्य उत्तर प्रदेश व अन्य) में एक याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर ₹5,000 का जुर्माना लगाया। याचिका में राजस्व परिषद के उस आदेश को चुनौती दी गई थी जिसमें स्थानांतरण आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया था। न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर ने अपने निर्णय में कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा न्यायिक अधिकारी पर लगाए गए आरोप “पूर्णतः आपत्तिजनक” और “किसी भी प्रमाण के बिना” थे।
मामला पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता जय सिंह ने राजस्व पुनरीक्षण संख्या 791 सन् 2021, गणेशनुज दास बनाम गोपाल राम व अन्य को अपर आयुक्त (न्यायिक) तृतीय, बरेली की अदालत से स्थानांतरित करने की मांग की थी। यह स्थानांतरण आवेदन उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 की धारा 210 के तहत दिया गया था। राजस्व परिषद ने यह स्थानांतरण याचिका अस्वीकार कर दी, बिना किसी कारणों को उल्लेख किए, जिसे वर्तमान याचिका में चुनौती दी गई।
याचिकाकर्ता के आरोप
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता उमेश चंद्र तिवारी ने तर्क दिया कि परिषद का आदेश कारणरहित और अत्यंत संक्षिप्त है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पीठासीन अधिकारी ने 25.05.2023 की एक प्रार्थना-पत्र को न सुनकर सीधे अंतिम सुनवाई के लिए तारीख नियत कर दी, जो पक्षपातपूर्ण आचरण को दर्शाता है। इसके अलावा यह आरोप भी लगाया गया कि प्रतिवादी संख्या 4 (गणेशनुज दास) एक प्रभावशाली राजनीतिक व्यक्ति हैं और उन्होंने कथित रूप से कहा है कि जब तक वे चाहेंगें, मामला निपटाया नहीं जाएगा। सबसे गंभीर आरोप यह लगाया गया कि न्यायालय की पीठासीन अधिकारी और प्रतिवादी संख्या 4 के बीच मिलीभगत है।

न्यायालय के विचार
न्यायमूर्ति मुनीर ने स्वीकार किया कि परिषद का आदेश कारणरहित है, लेकिन यह कहा कि इस आधार पर आदेश को रद्द करने से भी निष्कर्ष में कोई बदलाव नहीं आता। उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप पूरी तरह से “अधारहीन” हैं और उनमें किसी प्रकार का ठोस प्रमाण नहीं है।
न्यायालय ने कहा:
“कोई गलत आदेश या प्रक्रिया अपनाना पक्षपात सिद्ध नहीं करता।”
सुनवाई में देरी के आरोप पर कोर्ट ने टिप्पणी की:
“अगर किसी न्यायालय द्वारा सुनवाई में विलंब होता है तो वह चिंता का विषय हो सकता है, किंतु यह पक्षपात का प्रमाण नहीं होता।”
राजनीतिक प्रभाव और मिलीभगत के आरोपों पर कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा:
“पीठासीन अधिकारी और प्रतिवादी संख्या 4 के बीच मिलीभगत का आरोप आपराधिक अवमानना की सीमा को छूता है।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“ऐसे आरोप स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार का उपयोग नहीं, बल्कि अनुशासनहीनता और मर्यादाहीनता का प्रदर्शन हैं, जो एक सभ्य समाज के लिए अनुपयुक्त हैं।”
निर्णय और जुर्माना
कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर ₹5,000 का जुर्माना लगाया। यह राशि पंद्रह दिनों के भीतर रजिस्ट्रार जनरल के समक्ष जमा करनी होगी। यदि राशि निर्धारित समय में जमा नहीं होती, तो उसे भू-राजस्व के बकाया के रूप में वसूल किया जाएगा। प्राप्त राशि हाईकोर्ट विधिक सेवा प्राधिकरण के खाते में जमा कराई जाएगी।
न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि यह आदेश सिविल जज (सीनियर डिवीजन), बरेली के माध्यम से अपर आयुक्त (न्यायिक) तृतीय, बरेली को भेजा जाए।