जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने ट्रायल जजों द्वारा अंतरिम आदेशों का मसौदा स्टाफ से तैयार कराए जाने की प्रवृत्ति पर जताई चिंता

जम्मू और कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने एक हालिया निर्णय में ट्रायल कोर्ट के मजिस्ट्रेटों द्वारा आरोप तय करने जैसे महत्वपूर्ण अंतरिम आदेशों का मसौदा स्वयं लिखने या निर्देशित करने के बजाय अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से तैयार कराए जाने की प्रवृत्ति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।

यह टिप्पणी न्यायमूर्ति मोहम्मद यूसुफ वानी ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के तहत दायर अशोक कुमार भगत की याचिका को खारिज करते हुए दी। याचिकाकर्ता ने 6 अक्तूबर 2023 को न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, आर.एस. पुरा, जम्मू द्वारा भारतीय दंड संहिता की धाराओं 420, 467, 468, 471 एवं BNSS की धारा 193 के अंतर्गत आरोप तय किए जाने के आदेश को रद्द करने की मांग की थी।

मामला पृष्ठभूमि

यह कार्यवाही थाना आर.एस. पुरा, जम्मू में स्थानीय तहसीलदार की शिकायत पर दर्ज एफआईआर संख्या 192/2021 से उत्पन्न हुई थी। एफआईआर और चार्जशीट में याचिकाकर्ता पर धोखाधड़ी, जालसाजी और सबूतों के फर्जी निर्माण के आरोप लगाए गए थे। आरोपों के अनुसार याचिकाकर्ता ने राजस्व अधिकारियों के समक्ष स्वयं को एक मृत पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी का एकमात्र जीवित उत्तराधिकारी बताकर अवैध लाभ लेने का प्रयास किया था।

न्यायालय के प्रेक्षण

न्यायालय ने याचिका, संलग्न दस्तावेजों और ट्रायल कोर्ट की फाइल की समीक्षा के बाद पाया कि प्राथमिकी और अंतिम पुलिस रिपोर्ट प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराधों को उजागर करती हैं। कोर्ट ने यह दोहराया कि आरोप तय करने के चरण पर विस्तृत जांच की आवश्यकता नहीं होती, और पुलिस रिपोर्ट के आधार पर एक मजबूत संदेह भी मुकदमे के लिए पर्याप्त होता है।

जस्टिस वानी ने कहा:

“आरोप तय करने की अवस्था में, न्यायालय को मामले की व्यापक संभावनाओं पर विचार करना होता है और एक मजबूत संदेह भी आरोप तय करने के लिए पर्याप्त हो सकता है।”

हालांकि, कोर्ट ने यह चिंता भी प्रकट की कि ट्रायल मजिस्ट्रेटों द्वारा आरोप तय करने संबंधी आदेशों का मसौदा तैयार करने का कार्य अधीनस्थ कर्मचारियों को सौंपा जा रहा है।

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न्यायालय ने कहा:

“यह देखा गया है कि अधिकांश ट्रायल मजिस्ट्रेट, मामलों की सुनवाई के उपरांत, आरोप तय करने जैसे अंतरिम आदेशों का मसौदा अपने अधीनस्थ स्टाफ को मौखिक निर्देश देकर तैयार कराते हैं।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेटों का यह कर्तव्य है कि वे ऐसे आदेश या तो स्वयं हस्तलिखित रूप में तैयार करें अथवा सीधे अपने निर्देश में उनकी टाइपिंग कराएं।

अंतिम निर्णय

कोर्ट ने प्राथमिकी दर्ज करने अथवा पुलिस रिपोर्ट दाखिल करने में किसी प्रकार की गैरकानूनीता नहीं पाई। हालांकि, 6 अक्तूबर 2023 के आदेश की मसौदा प्रक्रिया को प्रक्रिया संबंधी एक ‘अनियमितता’ माना गया, जिसे कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं माना गया।

याचिका को खारिज करते हुए, कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को यह निर्देश दिया कि वह आरोपों की उपयुक्तता की दोबारा समीक्षा करे और यदि आवश्यक हो तो याचिकाकर्ता के वकील को सुनने के उपरांत आरोपों में संशोधन या परिवर्तन करे।

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कोर्ट ने निर्देश दिया:

“ट्रायल कोर्ट यह देखे कि अभियोजन पक्ष के तथ्यों और परिस्थितियों में 6.10.2023 के आदेश में उल्लिखित अपराध बनते हैं या नहीं। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता को इस संबंध में सुनवाई का अवसर दिया जाए और यदि आवश्यक हो तो आरोपों में कानून के अनुसार संशोधन या परिवर्तन किया जाए।”

मामला: अशोक कुमार भगत बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर एवं अन्य
मामला संख्या: सीआरएम(एम) नंबर 327/2025

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