सुप्रीम कोर्ट ने राजेश चड्ढा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [एसएलपी (क्रिमिनल) सं. 2353-54/2019] में फैसला सुनाते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4 के तहत राजेश चड्ढा की सजा को रद्द कर दिया है। न्यायालय ने कहा कि इन धाराओं के तहत आरोप “अस्पष्ट या हवा में नहीं लगाए जा सकते”। कोर्ट ने इन दंडात्मक प्रावधानों को लागू करने के लिए ठोस और स्पष्ट आरोपों की आवश्यकता पर बल दिया।
यह निर्णय न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ द्वारा सुनाया गया, जिसमें अपील को स्वीकार कर लिया गया और अपीलकर्ता को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया।
पृष्ठभूमि
यह मामला 20 दिसंबर 1999 को महिला थाना, लखनऊ में दर्ज प्राथमिकी से उत्पन्न हुआ था, जो अपीलकर्ता की पत्नी माला चड्ढा द्वारा दायर की गई थी। शिकायत में यह आरोप लगाया गया था कि माला को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया क्योंकि वह पर्याप्त दहेज नहीं लाई थी। शिकायत में उसके पति और ससुराल वालों को अभियुक्त बताया गया और आरोप लगाए गए कि उसे जबरन नशीली दवाएं दी गईं, गर्भावस्था के दौरान मारपीट की गई जिससे गर्भपात हो गया, और ₹2 लाख की मांग की गई।
ट्रायल कोर्ट का फैसला
निचली अदालत ने धारा 323 सहपठित धारा 34 और 506 आईपीसी के तहत आरोपों से अभियुक्तों को चिकित्सा साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया, लेकिन राजेश चड्ढा को धारा 498A आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 के तहत दोषी ठहराते हुए क्रमशः दो वर्ष और एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई। इस निर्णय को सत्र न्यायालय और फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह कहते हुए बरकरार रखा कि ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों में कोई कानूनी त्रुटि या विकृति नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मामले की साक्ष्य संबंधी नींव की गहन जांच की और कहा:
“धारा 498A आईपीसी एवं दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धाराओं 3 एवं 4 के तहत अपराध सिद्ध करने के लिए आरोप अस्पष्ट या मनगढ़ंत नहीं हो सकते।”
कोर्ट ने पाया कि लगाए गए आरोप “अस्पष्ट, सामान्य और किसी भी ठोस विवरण से रहित” थे। शिकायतकर्ता और उसके पिता के बयानों के अतिरिक्त कोई अन्य समर्थनकारी साक्ष्य नहीं था, जैसे कि चिकित्सीय प्रमाण या उत्पीड़न के दिनांक और तरीकों का स्पष्ट उल्लेख।
कोर्ट ने यह भी कहा कि शिकायत उस समय दायर की गई जब पति ने पहले ही तलाक की कार्यवाही शुरू कर दी थी और विवाह पहले ही डिक्री द्वारा समाप्त हो चुका था जो अंतिम रूप ले चुकी थी।
सुरक्षात्मक प्रावधानों के दुरुपयोग पर चिंता
न्यायालय ने आईपीसी की धारा 498A और दहेज निषेध अधिनियम की धाराओं 3 और 4 के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा:
“‘क्रूरता’ शब्द का पक्षों द्वारा नितांत क्रूर दुरुपयोग किया जा रहा है और इसे केवल सामान्य आरोपों से स्थापित नहीं किया जा सकता, कम से कम कुछ विशेष घटनाओं के बिना।”
कोर्ट ने दारा लक्ष्मी नारायण बनाम तेलंगाना राज्य में अपने पूर्व निर्णय का हवाला देते हुए दोहराया कि यदि परिवार के सभी सदस्यों के खिलाफ सामान्य आरोप लगाए जाते हैं और उनमें विशिष्ट विवरण नहीं होते, तो इससे शिकायत की विश्वसनीयता कम हो जाती है और यह कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाता है।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और निचली अदालतों के आदेशों को रद्द करते हुए राजेश चड्ढा को सभी आरोपों से बरी कर दिया:
“अपीलकर्ता के विरुद्ध आगे की कोई भी कार्यवाही केवल विधि की प्रक्रिया का दुरुपयोग ही होगी।”