नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाजी (आईपीसी धारा 468) और जाली दस्तावेज़ को असली के रूप में इस्तेमाल करने (आईपीसी धारा 471) के अपराध में किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि अभियोजन पक्ष यह संदेह से परे साबित न कर दे कि जालसाजी किसने की थी और आरोपी ने उस दस्तावेज़ का इस्तेमाल यह जानते हुए किया कि वह जाली है। जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने एक छात्रा को मार्कशीट जालसाजी के आरोप से बरी करते हुए इस स्थापित कानूनी सिद्धांत पर जोर दिया कि “संदेह, चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, कानूनी सबूत का स्थान नहीं ले सकता।”
अदालत ने छात्रा वंदना द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें उसकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष कथित अपराधों के आवश्यक तत्वों को साबित करने में विफल रहा, जिसके कारण मामला कानूनी रूप से अस्थिर था।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता नागपुर विश्वविद्यालय से संबद्ध अनिकेत कॉलेज ऑफ सोशल वर्क में बैचलर ऑफ सोशल वर्क (BSW) की छात्रा थी। 1998 में अपनी BSW पार्ट-I परीक्षा में अनिवार्य अंग्रेजी विषय में फेल होने के बाद, उस पर आरोप लगा कि उसने BSW पार्ट-III पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए एक जाली मार्कशीट (प्रदर्श 15) और पुनर्मूल्यांकन अधिसूचना (प्रदर्श 36) जमा की। अभियोजन पक्ष का दावा था कि उसके अंक मार्कशीट पर “10” से बदलकर “18” और अधिसूचना पर “10” से “30” कर दिए गए थे।

ये दस्तावेज़ कॉलेज के एडमिशन क्लर्क और प्रिंसिपल से होकर गुजरे, जिसके बाद विश्वविद्यालय द्वारा जालसाजी का पता लगाया गया और एक प्राथमिकी दर्ज की गई। निचली अदालत ने छात्रा और दो कॉलेज अधिकारियों को दोषी ठहराया था, लेकिन हाईकोर्ट ने अधिकारियों को बरी कर दिया लेकिन छात्रा की दोषसिद्धि को बरकरार रखा।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि दोषसिद्धि कमजोर सबूतों पर आधारित थी, जिसमें बदलाव करने वाले की पहचान के लिए किसी लिखावट विशेषज्ञ (हैंडराइटिंग एक्सपर्ट) या फोरेंसिक विश्लेषण का अभाव था। यह दलील दी गई कि केवल “नंगी आंखों से देखी गई ओवरराइटिंग” के आधार पर दोषसिद्धि असुरक्षित है, खासकर जब दस्तावेज़ कई हाथों से गुजरे हों और अभियोजन यह स्थापित करने में विफल रहा कि हेरफेर कब और किसके द्वारा किया गया था। वहीं, महाराष्ट्र राज्य ने हाईकोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए अपील को खारिज करने की मांग की।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने मामले का विस्तृत विश्लेषण किया और पाया कि अभियोजन पक्ष कथित अपराधों के लिए आवश्यक सबूतों के मानक को पूरा करने में विफल रहा है।
1. जालसाजी के कर्ता का सबूत नहीं, धारा 468 के तहत दोषसिद्धि के लिए घातक: अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 468 के तहत दोषसिद्धि के लिए, अभियोजन पक्ष को पहले यह स्थापित करना होगा कि आरोपी ने एक झूठा दस्तावेज़ बनाया है। इस मामले में, दस्तावेज़ कई हाथों से गुजरे थे। फैसले में कहा गया, “अभियोजन पक्ष किसी भी विश्वसनीय साक्ष्य से यह साबित करने में विफल रहा कि कथित हेरफेर स्वयं याचिकाकर्ता द्वारा किया गया था या जब दस्तावेज़ उसकी विशेष हिरासत और नियंत्रण में थे।” कर्ता को साबित किए बिना, जालसाजी का आरोप कायम नहीं रह सकता।
2. ‘स्पष्ट ओवरराइटिंग’ पर आधारित दोषसिद्धि आपराधिक कानून के सिद्धांतों के विरुद्ध: पीठ ने निचली अदालतों द्वारा केवल “ओवरराइटिंग के दृश्य अनुमान” पर भरोसा करने की आलोचना की। अदालत ने माना कि प्रत्यक्ष साक्ष्य या विशेषज्ञ की राय के अभाव में, “स्पष्ट ओवरराइटिंग” को निर्णायक सबूत मानना “संदेह से परे सबूत के मानक के विपरीत है।” इस साक्ष्य की कमी को अभियोजन पक्ष के मामले में एक बड़ी कमजोरी माना गया।
3. धारा 471 के लिए जालसाजी की जानकारी (Mens Rea) साबित नहीं हुई: धारा 471 के तहत दोषसिद्धि के लिए यह साबित करना आवश्यक है कि आरोपी ने किसी दस्तावेज़ का इस्तेमाल यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण होते हुए किया कि वह जाली है। अदालत ने इस महत्वपूर्ण मानसिक तत्व (Mens Rea) का कोई सबूत नहीं पाया। अदालत ने कहा, “इस बात के सबूत के अभाव में कि याचिकाकर्ता का झूठा दस्तावेज़ बनाने का कोई बेईमान इरादा था या उसे जमा करते समय उसकी असलियत का पता था, मानसिक स्थिति या mens rea साबित नहीं होती है।”
4. धारा 313 CrPC के तहत बयान में प्रक्रियात्मक खामी: फैसले में आरोपी के खिलाफ एक प्रक्रियात्मक पूर्वाग्रह का भी उल्लेख किया गया, क्योंकि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत उसके बयान के दौरान उससे “मिश्रित और व्यापक प्रश्न” पूछे गए थे, जो एक निष्पक्ष स्पष्टीकरण के उसके वैधानिक अधिकार का उल्लंघन था।
निर्णय
यह दोहराते हुए कि जब दो विचार संभव हों तो संदेह का लाभ आरोपी को मिलना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत केवल संदेह पैदा करते हैं। यह संदेह से परे यह स्थापित नहीं करता कि याचिकाकर्ता ने धारा 468 के तहत दस्तावेज़ों में जालसाजी की थी या धारा 471 के तहत जानबूझकर उन्हें असली के रूप में इस्तेमाल किया था।
तदनुसार, अपील स्वीकार की गई और याचिकाकर्ता पर लगाई गई दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया गया।