सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता शामिल थे, ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत शकुंतला देवी की आत्महत्या के लिए उकसाने की सजा को बरकरार रखा है। कोर्ट ने यह दोहराया कि इस अपराध के लिए एक ऐसा सक्रिय कृत्य या चूक आवश्यक है, जिसका उद्देश्य मृतक को आत्महत्या के लिए प्रेरित करना हो। पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती देने वाली अपील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट द्वारा दी गई तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा को भी बरकरार रखा।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता शकुंतला देवी मृतका श्रीमती कुसुम की सास हैं, जिनकी मृत्यु 4 मई 1998 को उनके ससुराल में हुई थी। कुसुम का विवाह 14 मई 1997 को अपीलकर्ता के पुत्र राजेंद्र कुमार से हुआ था। कुसुम के पिता ने 8 मई 1998 को प्राथमिकी दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि अपीलकर्ता द्वारा अतिरिक्त दहेज की मांग, विशेष रूप से ₹25,000 और एक सोने की चेन के लिए, मानसिक और शारीरिक रूप से उनकी पुत्री को प्रताड़ित किया गया।
यह आरोप लगाया गया कि 25 अप्रैल 1998 को कुसुम ने दहेज उत्पीड़न की शिकायत करते हुए अपने मायके लौट आई थी। हालांकि, गर्भावस्था और परिवार में विवाह समारोह में भाग लेने की आवश्यकता के चलते, 1 मई 1998 को उसे उसके छोटे भाई संदीप कुमार (गवाह संख्या 3) के साथ पुनः ससुराल भेजा गया। 4 मई 1998 को कुसुम ने कथित तौर पर विषाक्त पदार्थ का सेवन कर आत्महत्या कर ली।
ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए, 304बी तथा दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत दोषी ठहराते हुए 304बी के तहत सात वर्ष के कठोर कारावास एवं अन्य धाराओं के तहत एक-एक वर्ष की सजा (समानांतर चलने वाली) सुनाई थी।
हाईकोर्ट का निर्णय
अपीलकर्ता ने अपनी सजा के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। हाईकोर्ट ने उन्हें धारा 498ए, 304बी आईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम की धाराओं 3 और 4 के आरोपों से बरी कर दिया। हालांकि, गवाह संख्या 3 की गवाही और अन्य साक्ष्यों के आधार पर हाईकोर्ट ने उन्हें धारा 306 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया। उनकी लगभग 70 वर्ष की उम्र को ध्यान में रखते हुए, हाईकोर्ट ने उन्हें तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को खारिज करते हुए गवाह संख्या 3, जो मृतका के छोटे भाई हैं, की गवाही को विश्वसनीय और स्वाभाविक बताया। गवाह ने कहा कि 1 मई 1998 को वह अपनी बहन को उसके ससुराल छोड़ने गया था और वहां ठहरा था। घटना के दिन, अपीलकर्ता ने मृतका को चावल पकाने को लेकर अपशब्द कहे और बाद में भी मानसिक उत्पीड़न किया। गवाह के अनुसार, जब उसे किसी अन्य व्यक्ति को बुलाने के लिए भेजा गया और वह लौटकर आया, तो पाया कि उसकी बहन ने विषाक्त पदार्थ का सेवन कर लिया था।
कोर्ट ने टिप्पणी की:
“इस 17 वर्षीय युवा गवाह ने पूरे घटनाक्रम को अत्यंत स्वाभाविक ढंग से बयान किया है। इस तथ्य को हमने भी नजरअंदाज नहीं किया कि गवाह संख्या 3 ने घटनाओं का एक ऐसा वर्णन किया है जो किसी भी प्रकार से बढ़ा-चढ़ाकर या असत्य प्रतीत नहीं होता।”
सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा:
“अपराध के लिए ऐसा सक्रिय कृत्य या चूक आवश्यक है, जिसने मृतक को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया हो, और यह कृत्य या चूक जानबूझकर मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने के इरादे से किया गया हो।”
कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता द्वारा लगातार की गई दुर्व्यवहार और दहेज मांगों के कारण मृतका को अत्यधिक मानसिक पीड़ा हुई, जिससे उसने आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाया। कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि मृतका ने पहले भी अपने मायके में शरण ली थी और माता-पिता के आश्वासन पर ही वह वापस ससुराल लौटी थी।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के मामले की निष्पक्षता और ईमानदारी की सराहना करते हुए यह टिप्पणी की:
“यह उन दुर्लभ मामलों में से एक है जहां शिकायतकर्ता ने आरोप लगाते समय ईमानदारी का परिचय दिया है और मृतका के पति के अन्य परिवारजनों को बिना कारण शामिल करते हुए सामान्यीकृत आरोप नहीं लगाए।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि धारा 306 आईपीसी के तहत दोषसिद्धि उचित थी और हाईकोर्ट द्वारा सुनाई गई तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा को बरकरार रखा। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि चूंकि अपीलकर्ता को अपील लंबित रहने के दौरान जमानत पर रिहा कर दिया गया था, अतः उन्हें चार सप्ताह के भीतर शेष सजा भुगतने के लिए आत्मसमर्पण करना होगा। विफल रहने पर ट्रायल कोर्ट को उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई।