एक उल्लेखनीय फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से पुष्टि की है कि दलित व्यक्तियों से जुड़ी बौद्धिक संपदा की चोरी पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है। यह फैसला महाराष्ट्र सरकार के प्रधान सचिव और अन्य बनाम क्षिप्रा कमलेश उके और अन्य (विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) डायरी संख्या 49832/2024) के मामले में आया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने दलित शोधकर्ताओं को राहत देने वाले बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, जिनके काम का कथित तौर पर दुरुपयोग किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला दलित शोधकर्ता क्षिप्रा कमलेश उके द्वारा उनके काम की कथित बौद्धिक संपदा चोरी के खिलाफ दायर याचिका से शुरू हुआ था। उके ने बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें तर्क दिया गया था कि उनके शोध कार्य का दुरुपयोग न केवल साहित्यिक चोरी का कार्य था, बल्कि एससी/एसटी अधिनियम के तहत अत्याचार भी था, क्योंकि इसका उद्देश्य हाशिए पर पड़े समुदाय के सदस्य के रूप में उनका दमन और शोषण करना था।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने 10 नवंबर, 2023 को अपने आदेश में उके के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि दलित विद्वानों से जुड़ी बौद्धिक संपदा का दुरुपयोग एससी/एसटी अधिनियम के तहत अत्याचार के बराबर हो सकता है। महाराष्ट्र सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
शामिल कानूनी मुद्दे
इस मामले ने महत्वपूर्ण कानूनी सवाल उठाए, जिनमें शामिल हैं:
1. क्या बौद्धिक संपदा की चोरी को एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है – मुख्य तर्क इस बात पर केंद्रित था कि क्या दलित शोधकर्ता के काम की चोरी अधिनियम के तहत शोषण और अपमान का एक रूप है।
2. एससी/एसटी अधिनियम के तहत सुरक्षा का दायरा – इस मामले में जांच की गई कि क्या अधिनियम शारीरिक और मौखिक भेदभाव से परे शैक्षणिक और पेशेवर अन्याय को कवर करता है।
3. दलित शोधकर्ताओं को शोषण से बचाने में राज्य प्राधिकारियों की भूमिका – याचिका में हाशिए पर पड़े समुदायों के बौद्धिक योगदान की सुरक्षा के लिए सक्रिय उपायों की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया और हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि की। अदालत ने कहा:
“हाशिए पर पड़े व्यक्ति के बौद्धिक योगदान का दुरुपयोग, खासकर जब यह उन्हें उचित श्रेय और पेशेवर उन्नति से वंचित करने के इरादे से किया जाता है, तो यह एससी/एसटी अधिनियम के तहत भेदभाव और शोषण के दायरे में आता है।”
पीठ ने आगे कहा कि कानून को भेदभाव और उत्पीड़न के नए रूपों को पहचानने के लिए विकसित किया जाना चाहिए, खासकर शैक्षणिक और पेशेवर क्षेत्रों में, जहां दलित शोधकर्ताओं को अक्सर प्रणालीगत बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
पक्षकारों की दलीलें
– याचिकाकर्ता (महाराष्ट्र सरकार) की ओर से: अधिवक्ता सिद्धार्थ धर्माधिकारी, आदित्य अनिरुद्ध पांडे और भारत बागला ने तर्क दिया कि बौद्धिक संपदा की चोरी को एससी/एसटी अधिनियम के बजाय कॉपीराइट अधिनियम और भारतीय दंड संहिता जैसे पारंपरिक कानूनों के तहत संबोधित किया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसे मामलों को कवर करने के लिए एससी/एसटी अधिनियम का विस्तार करने से दुरुपयोग के लिए द्वार खुल जाएंगे।
– प्रतिवादी (क्षिप्रा कमलेश उके) की ओर से: कानूनी प्रतिनिधियों ने इस बात पर जोर दिया कि शोध कार्य की चोरी केवल कॉपीराइट का उल्लंघन नहीं है, बल्कि दलित विद्वानों की आवाज़ और योगदान को दबाने के उद्देश्य से व्यवस्थित भेदभाव का कार्य है।