धारा 138 NI Act | शिकायतकर्ता की सहमति के बिना समझौता करने का आदेश नहीं दे सकता कोर्ट, भले ही मुआवजा जमा कर दिया गया हो: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध में धारा 147 के अंतर्गत समझौता (Compounding) तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि शिकायतकर्ता की स्पष्ट सहमति न हो।

जस्टिस राकेश कैंथला की पीठ ने अपराध को कंपाउंड करने के लिए दायर एक आवेदन को खारिज कर दिया। कोर्ट ने व्यवस्था दी कि अदालत किसी शिकायतकर्ता को समझौते के लिए सहमति देने हेतु बाध्य नहीं कर सकती, भले ही आरोपी ने ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित मुआवजे की राशि जमा कर दी हो।

इस मामले में कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या धारा 138 के तहत चल रही आपराधिक कार्यवाही को धारा 147 के तहत केवल इस आधार पर खत्म किया जा सकता है कि आरोपी ने मुआवजे की राशि जमा कर दी है, जबकि शिकायतकर्ता समझौते के लिए तैयार नहीं है। कोर्ट ने इसका नकारात्मक उत्तर दिया और दोहराया कि अपराधों के समझौते के लिए “पीड़ित व्यक्ति की सहमति” अनिवार्य है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला देवी राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य (Devi Ram vs. State of HP and another) में दायर आवेदन (Cr. MP No. 5046 of 2025) से संबंधित है। आवेदक/आरोपी देवी राम ने एनआई एक्ट की धारा 147 के तहत मामले में समझौता करने की मांग की थी।

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आरोपी का कहना था कि उसने ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के अनुसार मुआवजे की पूरी राशि जमा कर दी है। वर्तमान में न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) में बंद आरोपी ने दलील दी कि उसने यह राशि अपने रिश्तेदारों से उधार लेकर जुटाई है और वह मामले को रफा-दफा करना चाहता है। उसने यह भी कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के अनुसार कंपाउंडिंग फीस जमा करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए उसे इससे छूट दी जाए।

दलीलें

आवेदक/याचिकाकर्ता के वकील श्री एच.एस. रंगरा ने तर्क दिया कि चूंकि आरोपी ने मुआवजे की पूरी राशि जमा कर दी है, इसलिए मामले में समझौता करने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन्होंने आरोपी की खराब आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए कंपाउंडिंग फीस जमा करने में असमर्थता जताई।

राज्य की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री जितेंद्र शर्मा पेश हुए। फैसले में यह नोट किया गया कि मुआवजे की राशि जमा होने के बावजूद शिकायतकर्ता ने समझौते के लिए अपनी सहमति नहीं दी।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस कैंथला ने एनआई एक्ट के तहत अपराधों के समझौते से संबंधित वैधानिक प्रावधानों और बाध्यकारी नजीरों (Binding Precedents) का विस्तृत विश्लेषण किया।

1. सहमति पर कोई समझौता नहीं

हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के JIK Industries Ltd. v. Amarlal V. Jumani (2012) के फैसले पर भरोसा जताया। इस फैसले में स्थापित किया गया था कि एनआई एक्ट की धारा 147, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 320 में निहित समझौते के मूल सिद्धांतों को खत्म नहीं करती है। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को उद्धृत किया:

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“एनआई एक्ट की धारा 147 का तर्कसंगत अर्थ यह लगाया जाना चाहिए कि इस धारा के परिणामस्वरूप एनआई एक्ट के तहत अपराध समझौता योग्य (Compoundable) हो जाते हैं, लेकिन ऐसे समझौते का मुख्य सिद्धांत, यानी पीड़ित व्यक्ति या शिकायतकर्ता की सहमति, को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और न ही धारा 147 के आधार पर इसे प्रतिस्थापित किया जा सकता है।”

2. कंपाउंडिंग और क्वैशिंग में अंतर

कोर्ट ने Raj Reddy Kallem v. State of Haryana (2024) के फैसले का हवाला देते हुए ‘केस रद्द करने’ (Quashing) और ‘अपराध के समझौते’ (Compounding) के बीच अंतर स्पष्ट किया। फैसले में कहा गया कि हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उन मामलों में कार्यवाही रद्द की है जहां मुआवजा मिलने के बावजूद शिकायतकर्ता ने समझौते से इनकार किया, लेकिन यह शक्ति केवल सुप्रीम कोर्ट के पास है। हाईकोर्ट धारा 482 CrPC या धारा 147 NI एक्ट के तहत इस शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता।

कोर्ट ने A.S. Pharma (P) Ltd. v. Nayati Medical (P) Ltd., 2024 का उल्लेख करते हुए कहा:

“धारा 138, एन.आई. एक्ट के तहत अपराध को धारा 147 के तहत केवल संबंधित शिकायतकर्ता की सहमति से ही कंपाउंड किया जा सकता है।”

3. मुआवजे की अपर्याप्तता

जस्टिस कैंथला ने पाया कि केवल ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित मुआवजा जमा करना इस मामले में पर्याप्त नहीं है। कोर्ट ने टिप्पणी की कि शिकायतकर्ता को “सत्र न्यायालय (Sessions Court) और उसके बाद इस हाईकोर्ट तक घसीटा गया।”

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कोर्ट ने कहा:

“उसने [शिकायतकर्ता ने] उस पैसे पर ब्याज भी खो दिया है जो उसे तब मिलता अगर मुआवजा ट्रायल कोर्ट के आदेश के तुरंत बाद जमा कर दिया गया होता।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने बाध्यकारी नजीरों के मद्देनजर यह माना कि “शिकायतकर्ता की सहमति के बिना मामले के निपटारे का निर्देश देना अनुमति योग्य नहीं है।”

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि शिकायतकर्ता को पर्याप्त मुआवजा नहीं मिला है और सहमति के अभाव में अपराध को कंपाउंड नहीं किया जा सकता। तदनुसार, मामले को निपटाने की प्रार्थना खारिज कर दी गई। मुख्य मामले (Cr.MP(M) No. 2619 of 2025) को एक सप्ताह बाद विचार के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

केस विवरण:

  • केस शीर्षक: देवी राम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य
  • केस नंबर: Cr. MP No. 5046 of 2025 in Cr. MP(M) No. 2619 of 2025
  • पीठ: जस्टिस राकेश कैंथला

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