सिविल जज द्वारा अस्पष्ट आदेश पारित करने पर हाईकोर्ट ने दिया न्यायिक रिफ्रेशर कोर्स का निर्देश

जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट, श्रीनगर पीठ ने 30 दिसंबर 2024 को श्रीनगर के फर्स्ट सिविल सबऑर्डिनेट जज (म्युनिसिपल मजिस्ट्रेट) द्वारा पारित एक आदेश को रद्द कर दिया है। उक्त आदेश में सीपीसी की धारा 151 के तहत दायर एक याचिका को संक्षेप में यह कहकर खारिज कर दिया गया था कि वह “मेरिटलेस” है, जबकि याचिकाकर्ता ने अंतरिम आदेश के उल्लंघन में हटाए गए लोहे के गेट को पुनर्स्थापित करने की मांग की थी। हाईकोर्ट ने इसे एक “अस्पष्ट और कारणरहित आदेश” बताया जो न्यायिक कर्तव्य की विफलता है। हाईकोर्ट ने मामले को नए सिरे से विचार के लिए वापस भेजते हुए संबंधित न्यायिक अधिकारी को जम्मू-कश्मीर न्यायिक अकादमी में रिफ्रेशर कोर्स के लिए भेजने का भी निर्देश दिया।

मामला संक्षेप में

याचिकाकर्ता श्रीनगर के उमराबाद एचएमटी क्षेत्र के निवासी हैं, जो अपने आवासीय मकानों के साथ एक साझा निजी रास्ते (कोचा) के वैध मालिक और कब्जाधारी होने का दावा करते हैं। उनका कहना था कि इस रास्ते के प्रवेश द्वार पर 2009 से पहले से एक लोहे का गेट स्थापित था। उन्होंने आरोप लगाया कि 20 अक्टूबर 2024 को श्रीनगर म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (एसएमसी) के अधिकारियों ने स्थानीय भूमाफिया के प्रभाव में आकर उस गेट को हटा दिया, जबकि 24 अक्टूबर 2024 को पहले ही अदालत द्वारा यथास्थिति बनाये रखने का अंतरिम आदेश पारित किया गया था।

याचिकाकर्ताओं ने ट्रायल कोर्ट में धारा 151 सीपीसी के तहत एक याचिका दाखिल कर गेट की पुनः स्थापना और status quo ante (पूर्व स्थिति) बहाल करने की प्रार्थना की थी। उन्होंने गोपनीयता और संपत्ति के अधिकार का हवाला देते हुए बिना किसी वैधानिक प्रक्रिया या नोटिस के गेट हटाए जाने को गैरकानूनी बताया।

हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत दलीलें

याचिकाकर्ताओं ने निचली अदालत के आदेश को निम्न आधारों पर चुनौती दी:

  • 24 अक्टूबर 2024 के अंतरिम आदेश पर विचार नहीं किया गया।
  • बिना किसी नोटिस या प्रतिवादियों से आपत्ति मंगवाए आदेश पारित किया गया।
  • आदेश यांत्रिक, अस्पष्ट और कारणविहीन था।
  • न्यायिक विवेक का अनुचित प्रयोग और प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन हुआ।
READ ALSO  ओवरटेक करने का प्रयास करना लापरवाही या जल्दबाजी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

हाईकोर्ट का अवलोकन

न्यायमूर्ति विनोद चटर्जी कौल ने ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि उसमें किसी भी प्रकार की न्यायिक विवेचना नहीं की गई। आदेश में केवल इतना कहा गया था कि — “आईए/3 के आदेश में दिए गए कारणों के आधार पर यह आवेदन भी मेरिटलेस है और खारिज किया जाता है।”
हाईकोर्ट ने कहा कि इस तरह की टिप्पणी किसी वैध न्यायिक निर्णय की श्रेणी में नहीं आती।

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि —

निर्णयों या आदेशों में निष्कर्षों के समर्थन में कारणों का उल्लेख… हमारी न्यायिक प्रणाली की स्थापना से ही अनिवार्य माना गया है।

हाईकोर्ट ने चेताया कि अस्पष्ट और बिना कारणों वाले आदेश न्यायिक वैधता को कमजोर करते हैं और निष्पक्ष न्याय की अवधारणा के विपरीत हैं।

कोर्ट ने Hindustan Times Ltd. v. Union of India [(1998) 2 SCC 242], M/s Shree Mahavir Carbon Ltd. v. Om Prakash Jalan [2013 (12) SCC 653], तथा Union Public Service Commission v. Bibhu Prasad Sarangi [AIR 2021 SC 2396] मामलों का हवाला देते हुए कहा कि हर आदेश में न्यायिक सोच का प्रकटीकरण और युक्तिसंगत आधार आवश्यक है।

READ ALSO  बेदखली के मुकदमे में किरायदर केवल मकान मालिक और किरायेदार के रिश्ते से इनकार करके किराए का भुगतान किए बिना संपत्ति का आनंद नहीं ले सकता: सुप्रीम कोर्ट

निर्णय

हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए 30 दिसंबर 2024 का आदेश निरस्त कर दिया और निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता की धारा 151 सीपीसी के अंतर्गत दी गई प्रार्थना पर प्रतिवादियों की आपत्ति प्राप्त करने के बाद नए सिरे से विचार करे।

साथ ही, कोर्ट ने असाधारण कदम उठाते हुए निर्देश दिया:

“जिस पीठासीन अधिकारी ने यह आदेश पारित किया है, उसे जम्मू-कश्मीर न्यायिक अकादमी में रिफ्रेशर कोर्स हेतु भेजा जाए।”

अंत में, रजिस्ट्री को यह निर्देश भी दिया गया कि आदेश की एक प्रति माननीय मुख्य न्यायाधीश के समक्ष उचित कार्रवाई के लिए प्रस्तुत की जाए।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles