राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, एक पति के खिलाफ दायर आपराधिक और भरण-पोषण के मामलों को ट्रांसफर करने का आदेश दिया है। कोर्ट ने यह आदेश इस आधार पर दिया कि प्रतिवादी-पत्नी, जो स्थानीय अदालत में एक प्रैक्टिसिंग वकील है, ने अपनी स्थिति का “दुरुपयोग” किया, जिससे याचिकाकर्ता-पति कानूनी प्रतिनिधित्व से वंचित हो गया।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने माना कि स्थानीय बार एसोसिएशन पर प्रभाव के कारण कानूनी सहायता हासिल करने में असमर्थता, निष्पक्ष सुनवाई (fair trial) के मौलिक सिद्धांत से समझौता है।
अदालत ने एक आपराधिक मामले को चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सवाई माधोपुर से और एक भरण-पोषण के मामले को फैमिली कोर्ट, सवाई माधोपुर से जयपुर मेट्रोपॉलिटन की समकक्ष अदालतों में ट्रांसफर कर दिया है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता-पति सवाई माधोपुर में अपनी पत्नी द्वारा दायर दो मामलों का सामना कर रहा है। पहला, एक आपराधिक मामला (संख्या 2093/2023) है जो आईपीसी की धारा 498A और 406 के तहत दर्ज FIR (संख्या 75/2023) पर आधारित है। इस मामले में चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सवाई माधोपुर के समक्ष चार्जशीट दायर की जा चुकी है।
दूसरा, सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए एक कार्यवाही (मामला संख्या 185/2024) है, जो फैमिली कोर्ट, सवाई माधोपुर में लंबित है। इसमें 30 जून, 2025 को 15,000 रुपये प्रति माह के अंतरिम भरण-पोषण का आदेश दिया गया था।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता (पति) ने इन मामलों के ट्रांसफर की मांग करते हुए दलील दी कि उसकी निष्पक्ष सुनवाई के मौलिक अधिकार से समझौता किया गया है। उसके वकील ने तर्क दिया कि प्रतिवादी-पत्नी सवाई माधोपुर में एक प्रैक्टिसिंग वकील है। उसने कथित तौर पर 10 जून, 2025 को बार एसोसिएशन, सवाई माधोपुर के अध्यक्ष को एक शिकायत लिखी, जिसमें उन तीन वकीलों (गोविंद प्रसाद गुप्ता, मुकेश बैरवा और अनीस मोहम्मद) के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई, जिन्हें याचिकाकर्ता ने अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त किया था।
याचिकाकर्ता ने कहा कि शिकायत में अनुशासनात्मक कार्रवाई और वकीलों को उसकी ओर से पेश होने से रोकने की मांग की गई थी। इसी आधार पर बार एसोसिएशन ने 19 जून, 2025 को तीनों वकीलों को नोटिस जारी कर उनसे स्पष्टीकरण मांगा। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी के प्रभाव के कारण, सवाई माधोपुर में कोई भी वकील अब उसे कानूनी सहायता देने को तैयार नहीं है।
इसके विपरीत, प्रतिवादी-पत्नी के वकील ने ट्रांसफर का विरोध किया। यह दलील दी गई कि तीनों वकीलों को 19 जून, 2025 को जारी किया गया नोटिस बार एसोसिएशन के पदाधिकारियों द्वारा उसी दिन वापस ले लिया गया था। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता कार्यवाही पर लगी अंतरिम रोक की “आड़” में भरण-पोषण के भुगतान से बच रहा था।
अदालत का विश्लेषण और निष्कर्ष
जस्टिस अनूप कुमार ढांड ने दोनों पक्षों को सुनने और रिकॉर्ड का अवलोकन करने के बाद, याचिकाकर्ता की आशंका को उचित पाया। अदालत ने प्रतिवादी के इस दावे को स्वीकार किया कि नोटिस वापस ले लिया गया था, लेकिन कहा: “भले ही ऐसा हो, इस तथ्य को देखते हुए कि प्रतिवादी सवाई माधोपुर में एक प्रैक्टिसिंग वकील है और यह देखते हुए कि उसने याचिकाकर्ता की ओर से पेश होने वाले उपरोक्त वकीलों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए बार एसोसिएशन को सफलतापूर्वक प्रभावित किया, ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता के पास सवाई माधोपुर स्थित अदालतों के समक्ष निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि वहां पर्याप्त कानूनी सहायता और उसका प्रतिनिधित्व करने के इच्छुक वकील उपलब्ध नहीं हैं।”
फैसले में इस बात की पुष्टि की गई कि कानूनी सहायता संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है। अदालत ने टिप्पणी की, “ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता को कानूनी सहायता प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया है और उसके पास सवाई माधोपुर में अपने खिलाफ निष्पक्ष सुनवाई का कोई मौका या उम्मीद नहीं है।”
अदालत ने माना कि इन परिस्थितियों ने निष्पक्ष सुनवाई के मूल सिद्धांतों से समझौता किया है। कोर्ट ने कहा, “याचिकाकर्ता जैसे वादी की, प्रतिवादी द्वारा बनाए गए शत्रुतापूर्ण माहौल या प्रभाव के कारण स्थानीय बार की अनिच्छा के चलते, प्रभावी कानूनी सहायता हासिल करने में असमर्थता, निष्पक्ष सुनवाई के मौलिक सिद्धांत से समझौता है, खासकर तब जब प्रतिवादी उसी अदालत में प्रैक्टिस करने वाली वकील है।”
जस्टिस ढांड ने मेनका संजय गांधी बनाम रानी जेठमलानी, (1979) 4 SCC 167 मामले में सुप्रीम कोर्ट की राय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “यदि कोई अभियुक्त व्यक्ति, किसी विशेष कारण से, इस सुविधा से वस्तुतः वंचित हो जाता है, तो निष्पक्ष सुनवाई के लिए एक आवश्यक सहायता विफल हो जाती है… यदि किसी निश्चित अदालत में पूरी बार, शत्रुता या अन्य कारणों से, किसी अभियुक्त व्यक्ति का बचाव करने से इनकार कर देती है… तो इसे एक ऐसे आधार के रूप में पेश किया जा सकता है जो इस अदालत का ध्यान आकर्षित करता है।”
हाईकोर्ट ने ज़ाहिरा हबीबुल्लाह शेख बनाम गुजरात राज्य, (2004) 4 SCC 158 मामले का भी जिक्र किया, जिसमें यह माना गया था कि एक निष्पक्ष सुनवाई “आवश्यक रूप से एक तटस्थ वातावरण के निर्माण को शामिल करेगी जहाँ पक्ष स्वतंत्र रूप से भाग ले सकें” और यह “न्यायिक शांति के माहौल” में होनी चाहिए।
निर्णय और निर्देश
हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के कार्यों की कड़ी निंदा की। “शिकायतकर्ता-प्रतिवादी की असुविधा का कोई सवाल नहीं है… क्योंकि वह निचली अदालत के समक्ष वकील होने की अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर रही है और किसी भी वकील को याचिकाकर्ता की ओर से पेश नहीं होने दे रही है। प्रतिवादी और स्थानीय बार एसोसिएशन का ऐसा कार्य और आचरण सराहनीय नहीं है और इसकी निंदा की जानी चाहिए।”
अदालत ने प्रतिवादी द्वारा उद्धृत किए गए निर्णयों को “स्वयं प्रतिवादी द्वारा बनाई गई अजीब परिस्थितियों” में लागू नहीं माना।
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि मामलों को ट्रांसफर करना “न्यायोचित और उचित” था, अदालत ने आदेश दिया:
- आपराधिक मामला संख्या 2093/2023 (स्टेट बनाम [याचिकाकर्ता]) को चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सवाई माधोपुर से चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, जयपुर मेट्रोपॉलिटन-I में ट्रांसफर किया जाता है।
- आपराधिक मामला संख्या 185/2024 ([प्रतिवादी] व अन्य बनाम [याचिकाकर्ता]) को फैमिली कोर्ट, सवाई माधोपुर से फैमिली कोर्ट नंबर 1, जयपुर मेट्रोपॉलिटन में ट्रांसफर किया जाता है।
हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता को 30 जून, 2025 के अंतरिम भरण-पोषण के आदेश का पालन करना होगा, और उसे नियमित भुगतान करने और तीन महीने के भीतर किसी भी बकाया राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया गया है।
दोनों आपराधिक ट्रांसफर याचिकाओं का इसी के साथ निपटारा कर दिया गया।




