पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक कांस्टेबल पद के अभ्यर्थी को नियुक्ति देने से इनकार करने के हरियाणा पुलिस के रवैये को कड़ी आलोचना का पात्र बनाते हुए आदेश को रद्द कर दिया और इसे “अधिकारों के दुरुपयोग और विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग” बताया। न्यायमूर्ति जगमोहन बंसल ने इस मामले में राज्य सरकार पर ₹50,000 का जुर्माना लगाया और दो सप्ताह में नियुक्ति पत्र जारी करने का निर्देश दिया।
यह फैसला Surender v. State of Haryana & Ors मामले में सुनाया गया, जिसमें मुख्य सवाल यह था कि क्या किसी अभ्यर्थी को उस आपराधिक मामले के आधार पर नियुक्ति से वंचित किया जा सकता है जिसमें जांच एजेंसी पहले ही उसे निर्दोष घोषित कर चुकी हो और अदालत से डिस्चार्ज मिल चुका हो। अदालत ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि अधिकारियों ने ‘यांत्रिक ढंग’ से काम किया और उनका रवैया निंदनीय था।
मामले की पृष्ठभूमि:
याचिकाकर्ता सुरेन्दर ने 30 दिसंबर 2020 की भर्ती विज्ञप्ति के तहत कांस्टेबल पद के लिए आवेदन किया था। चयन प्रक्रिया के दौरान 23 अगस्त 2021 को उसके खिलाफ आईपीसी और आईटी एक्ट की विभिन्न धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।

बावजूद इसके, स्टाफ सिलेक्शन कमीशन ने उसे पद के लिए अनुशंसा की। अगस्त 2023 में सत्यापन के दौरान याचिकाकर्ता ने एफआईआर की जानकारी अपने अटेस्टेशन फॉर्म में दी, लेकिन इसके बावजूद उसके दावे को खारिज कर दिया गया।
महत्वपूर्ण यह है कि जांच अधिकारी ने 27 दिसंबर 2022 को सप्लीमेंट्री चालान दाखिल कर याचिकाकर्ता को निर्दोष बताते हुए उसका नाम कॉलम नंबर 2 में डाला था। इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने भी 26 फरवरी 2024 को उसे डिस्चार्ज कर दिया। हालांकि राज्य सरकार ने इस डिस्चार्ज आदेश के खिलाफ रिविजन दायर किया है, जो विचाराधीन है।
यह तीसरी बार था जब याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया। पहली याचिका (CWP No. 3531/2024) में कोर्ट ने नियुक्ति पर विचार करने का निर्देश दिया था। दूसरी याचिका (CWP No. 5016/2025) में 21 फरवरी 2025 को कोर्ट ने Ravindra Kumar v. State of U.P. (2024) 5 SCC 264 के आधार पर दोबारा विचार का निर्देश दिया। परंतु 16 अप्रैल 2025 को अधिकारियों ने फिर दावा खारिज कर दिया, जिससे यह तीसरी याचिका दाखिल हुई।
पक्षकारों की दलीलें:
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता राजत मोर ने दलील दी कि याचिकाकर्ता ने हर चरण पर एफआईआर का सत्य खुलासा किया और जब उसे जांच में निर्दोष पाया गया और अदालत से डिस्चार्ज मिल गया, तो उसे नियुक्ति से वंचित नहीं किया जा सकता।
वहीं हरियाणा सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता रमन शर्मा ने विरोध करते हुए कहा कि Ravindra Kumar केस इस पर लागू नहीं होता। उन्होंने 27 सितंबर 2024 को पुलिस महानिदेशक द्वारा जारी निर्देशों का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि आपराधिक मामले की स्थिति केवल सत्यापन के समय देखी जानी चाहिए। साथ ही, उन्होंने पंजाब पुलिस नियमावली 1934 (हरियाणा में लागू) के नियम 12.18(3)(d) का हवाला देकर दावा खारिज किया।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां:
न्यायमूर्ति जगमोहन बंसल ने इस पूरे मामले में अधिकारियों के रवैये को सख्त लहजे में आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा:
“यह अधिकारों के दुरुपयोग और विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग का क्लासिकल केस है। अधिकारियों ने इस कोर्ट के बार-बार के आदेशों के बावजूद निंदनीय रवैया अपनाया है और यह दर्शाता है कि उन्हें संवैधानिक न्यायालयों के आदेशों का कोई सम्मान नहीं है।”
प्रमुख निष्कर्ष:
- कानूनी राय पर अनुचित निर्भरता: 2nd बटालियन HAP के कमांडेंट ने Ravindra Kumar केस को नजरअंदाज करने के लिए जिला सहायक अभियोजन अधिकारी की राय पर केवल निर्भरता दिखाई, जबकि उन्हें स्वविवेक से काम करना चाहिए था।
- ग़लत नियमों का प्रयोग: सत्यापन अक्टूबर 2023 में हुआ था, जबकि अधिकारी सितंबर 2024 के निर्देश लागू कर रहे थे। कोर्ट ने कहा कि रूल 12.18(3)(c) स्पष्ट रूप से लागू होता है, जिसके तहत यदि अभियोग समाप्त हो गया हो या अभियुक्त निर्दोष घोषित हो चुका हो, तो उसे नियुक्ति के लिए पात्र माना जाएगा।
- Ravindra Kumar की गलत व्याख्या: कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि हर मामला उसके तथ्यों के आधार पर तय होना चाहिए और केवल एफआईआर का होना पर्याप्त आधार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का कथन:
“हर गैर-प्रकटीकरण को अयोग्यता कहना अन्यायपूर्ण होगा… यह ‘वन साइज फिट्स ऑल’ नहीं हो सकता।” - पुलिस द्वारा निर्दोष घोषित किया जाना निर्णायक बिंदु: चूंकि जांच एजेंसी ने ही उसे निर्दोष बताया और चालान में कॉलम नंबर 2 में रखा, इसलिए वह कानूनी दृष्टि से आरोपी नहीं था।
अंतिम निर्णय:
कोर्ट ने 16 अप्रैल 2025 के अस्वीकृति आदेश को रद्द करते हुए याचिका स्वीकार कर ली। साथ ही कहा कि याचिकाकर्ता को बार-बार कोर्ट के चक्कर कटवाना पड़ा, इसलिए यह मामला जुर्माने योग्य है।
कोर्ट ने राज्य सरकार पर ₹50,000 का जुर्माना लगाया, जो दो सप्ताह में याचिकाकर्ता को दिया जाना होगा। इसके अलावा, दो सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता को नियुक्ति पत्र जारी करने और उसके साथियों के सेवा-प्रवेश तिथि से सभी काल्पनिक सेवा लाभ (seniority सहित) देने का आदेश दिया गया।