सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन शामिल थे, ने निर्णय दिया कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते समय किसी आदेश में हस्तक्षेप से इनकार कर सकता है, भले ही उसमें कुछ कानूनी खामियाँ हों, यदि ऐसा करने से वास्तविक न्याय की प्राप्ति होती हो। न्यायालय ने केवल तकनीकी आधारों पर अनावश्यक मुकदमेबाजी की आलोचना करते हुए न्याय प्रदान करने में न्यायसंगत (equitable) कारकों के महत्व को रेखांकित किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एम.एस. संजय बनाम इंडियन बैंक एवं अन्य (सिविल अपील संख्या 1188/2025) से संबंधित है, जिसमें याचिकाकर्ता ने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें SARFAESI अधिनियम, 2002 के तहत की गई एक नीलामी बिक्री को रद्द कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए यह स्पष्ट किया कि न्याय को केवल प्रक्रियागत त्रुटियों के कारण बलिदान नहीं किया जा सकता।
यह विवाद एक संपत्ति की नीलामी से संबंधित था, जिसे इंडियन बैंक ने उधारकर्ता एम/एस अरिहंत साड़ी द्वारा ऋण अदायगी में चूक के बाद नीलाम किया था। बैंक ने SARFAESI अधिनियम की प्रक्रियाओं का पालन करते हुए 31 जुलाई 2007 को इस संपत्ति को नीलामी के लिए रखा।
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याचिकाकर्ता एम.एस. संजय ने नीलामी में सबसे ऊंची बोली लगाई और ₹24,00,000 की कुल राशि जमा कर दी। इसके बाद, 30 नवंबर 2007 को बैंक ने उनके पक्ष में बिक्री प्रमाणपत्र जारी किया। इस संपत्ति को प्राप्त करने के बाद, उन्होंने इसमें लगभग ₹1.5 करोड़ का निवेश करके इसके विकास कार्य किए।
आश्चर्यजनक रूप से, मूल उधारकर्ता ने नीलामी को कभी चुनौती नहीं दी, लेकिन उत्तरदाता संख्या 4 (गारंटर) ने ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT), कर्नाटक में एक याचिका दायर करके नीलामी की वैधता पर सवाल उठाया।
मामले में प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या हाईकोर्ट ने केवल एक प्रक्रियागत त्रुटि के आधार पर नीलामी बिक्री को रद्द करके गलती की, जबकि इससे कोई वास्तविक अन्याय नहीं हुआ था?
- क्या अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट किसी कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर सकता है, यदि इससे वास्तविक न्याय प्राप्त होता हो?
- क्या SARFAESI अधिनियम के तहत नीलामी नोटिस में प्रक्रियात्मक त्रुटियां अपने आप में नीलामी को रद्द करने का पर्याप्त आधार हो सकती हैं?
सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ
अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट की शक्ति पर विचार
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 226 के तहत दी गई विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग न्यायिक रूप से किया जाना चाहिए और इसे केवल तकनीकी आधारों पर आदेशों को निरस्त करने के लिए स्वचालित रूप से लागू नहीं किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा:
“कोई भी आदेश केवल इस आधार पर निरस्त नहीं किया जाना चाहिए कि उसमें किसी वैधानिक प्रावधान या मानक का उल्लंघन हुआ है, यदि इससे किसी प्रकार की वास्तविक हानि नहीं हुई हो।”
अदालत ने शिव शंकर दल मिल्स बनाम हरियाणा राज्य (1980) 2 SCC 437 मामले का हवाला देते हुए कहा:
“अनुच्छेद 226 एक असाधारण उपाय प्रदान करता है, जो मूल रूप से विवेकाधीन है, और इसे सार्वजनिक हित और न्यायसंगत कारकों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिए।”
नीलामी प्रक्रिया पर विचार
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि उसने नीलामी की वैधता को निर्धारित करने में अत्यधिक तकनीकी दृष्टिकोण अपनाया, जबकि व्यावहारिक प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया। अदालत ने कहा:
“हाईकोर्ट को इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए था कि यह नीलामी वर्ष 2007 में पूरी हो चुकी थी और इसमें किसी को कोई वास्तविक नुकसान नहीं हुआ था।”
अदालत ने आगे कहा कि नीलामी प्रक्रिया में देरी से उठाए गए आपत्तियों को स्वीकार करना उचित नहीं है, विशेष रूप से जब बोलीदाता ने कानूनी रूप से संपत्ति हासिल कर ली हो और उसमें भारी निवेश किया हो।
न्यायिक व्याख्या में न्यायसंगत कारकों की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि न्यायालय को केवल विधिक व्याख्याओं का कठोर अनुपालन नहीं करना चाहिए, बल्कि मामले की वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए न्याय सुनिश्चित करना चाहिए।
“कानूनी मानकों को लागू करते समय उन्हें वास्तविक परिस्थितियों से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। कानून को न्यायसंगत (equitable) ढंग से लागू किया जाना चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
मामले का गहन विश्लेषण करने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता एम.एस. संजय के पक्ष में निर्णय सुनाया और कर्नाटक हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया। अदालत के मुख्य निष्कर्ष थे:
- नीलामी प्रक्रिया SARFAESI अधिनियम के अनुरूप थी, और मामूली प्रक्रियात्मक चूक से उधारकर्ता या गारंटर को कोई वास्तविक नुकसान नहीं हुआ था।
- हाईकोर्ट ने केवल तकनीकी आधारों पर DRAT के आदेश को रद्द करने में गलती की, जबकि उसने नीलामी क्रेता (बोलीदाता) के हितों पर विचार नहीं किया।
- याचिकाकर्ता, जिसने कानूनी रूप से संपत्ति प्राप्त की थी और उसमें भारी निवेश किया था, को वर्षों बाद गारंटर द्वारा दायर की गई अनावश्यक मुकदमेबाजी के कारण नुकसान नहीं उठाना चाहिए।
- अनुच्छेद 226 के तहत विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग न्यायसंगत और व्यावहारिक रूप से किया जाना चाहिए, जिससे वास्तविक न्याय की प्राप्ति हो, न कि केवल प्रक्रियागत तकनीकीताओं का पालन हो।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुकदमे को निराधार बताते हुए उत्तरदाता (गारंटर) पर लागत लगाने पर विचार किया, लेकिन अंततः इससे बचते हुए कहा:
“हम इस अपील को लागत सहित स्वीकार करने के इच्छुक थे, लेकिन हमने इस पर कोई आदेश पारित करने से परहेज किया है।”
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने नीलामी बिक्री को बहाल किया और यह दोहराया कि प्रक्रियात्मक त्रुटियों को उन लेन-देन को अस्थिर करने के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए, जो अंतिम रूप ले चुके हैं और जिनमें किसी वास्तविक अन्याय का आरोप नहीं है।