केवल आरोपी द्वारा दायर अपील में हाईकोर्ट न तो सज़ा बढ़ा सकता है और न ही किसी नए आरोप में दोषी ठहरा सकता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि यदि आपराधिक अपील केवल आरोपी द्वारा दायर की गई है, तो हाईकोर्ट अपनी स्वतः संज्ञान (suo motu) पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करते हुए न तो आरोपी की सज़ा बढ़ा सकता है और न ही किसी नए अपराध में उसे दोषी ठहरा सकता है। शीर्ष अदालत ने नागराजन बनाम तमिलनाडु राज्य (आपराधिक अपील सं. 2892-2893/2025) मामले में आरोपी को धारा 306 आईपीसी (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत दोषसिद्ध करने और दंडित करने के मद्रास हाईकोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया।

यह निर्णय न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने सुनाया।

पृष्ठभूमि

मामले में आरोपी नागराजन मृतका मरियम्मल का पड़ोसी था। 11 जुलाई 2003 की रात को उसने मृतका के घर में प्रवेश कर उसकी लज्जा भंग करने का प्रयास किया। अगले दिन सुबह मृतका और उसकी डेढ़ साल की बच्ची घर से गायब पाई गईं। बाद में यह सामने आया कि मृतका ने अपनी बड़ी बेटी को स्कूल से ले जाने की कोशिश की थी, लेकिन अनुमति न मिलने पर वह अपनी छोटी बच्ची के साथ खेत में गई और जहरीले बीज खाकर आत्महत्या कर ली, तथा बच्ची को भी जहर पिलाया।

ग्रामीण चौकीदार की शिकायत पर आरोपी के विरुद्ध धारा 306 आईपीसी के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज की गई। मामला महिला अदालत, फास्ट ट्रैक कोर्ट, डिंडिगुल में चला। 29 मई 2015 को ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को धारा 306 आईपीसी से बरी कर दिया लेकिन धारा 354 और 448 आईपीसी के तहत दोषी ठहराया। उसे तीन साल एक माह की साधारण कारावास और ₹25,000 का जुर्माना लगाया गया।

हाईकोर्ट की कार्यवाही

आरोपी ने उक्त सजा को मदुरै खंडपीठ में चुनौती दी। अपील की सुनवाई के दौरान, हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए आपराधिक पुनरीक्षण (Crl. R.C. (MD) No. 248/2015) दर्ज किया और 29 नवंबर 2021 को आरोपी को धारा 306 आईपीसी के तहत भी दोषी ठहराते हुए पांच साल की कठोर कारावास की सजा सुनाई।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ

सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक रूप से आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए दोहराया कि अपील करना आरोपी का “अनमोल अधिकार” है और इसके प्रयोग से उसकी स्थिति और खराब नहीं हो सकती। सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा:

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“एक अपील जिसमें आरोपी अपनी दोषसिद्धि और सजा को चुनौती देता है, उस अपील में हाईकोर्ट द्वारा सजा बढ़ाई नहीं जा सकती। अपील एक संवैधानिक और विधिक अधिकार है, और इसके प्रयोग से कोई व्यक्ति अधिक प्रतिकूल स्थिति में नहीं आ सकता।”

न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 की धारा 386 और 401 का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया:

  • धारा 386(बी)(iii) CrPC में अपील अदालत को सजा में परिवर्तन की अनुमति है, लेकिन “बिना उसे बढ़ाए”।
  • धारा 401(3) CrPC के अनुसार हाईकोर्ट पुनरीक्षण अधिकार में किसी अभियुक्त की बरी होने की स्थिति को दोषसिद्धि में नहीं बदल सकता।

कोर्ट ने no reformatio in peius के सिद्धांत का उल्लेख करते हुए कहा:

“कोई व्यक्ति अपील करके अपनी स्थिति को बदतर नहीं बना सकता। यह सिद्धांत उचित प्रक्रिया का हिस्सा है और प्राकृतिक न्याय का विस्तार भी है।”

निर्णय

अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:

“जब अपील केवल आरोपी द्वारा दायर की गई हो और न तो पीड़ित, शिकायतकर्ता अथवा राज्य द्वारा कोई अपील अथवा पुनरीक्षण याचिका दायर की गई हो, तो हाईकोर्ट न तो स्वतः संज्ञान लेकर सजा बढ़ा सकता है और न ही किसी अन्य अपराध में आरोपी को दोषी ठहरा सकता है।”

इस आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 306 आईपीसी के अंतर्गत दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया। ट्रायल कोर्ट द्वारा धारा 354 और 448 आईपीसी के अंतर्गत दी गई सजा को बरकरार रखा गया।

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अदालत ने निर्देश दिया कि यदि आरोपी ने अभी तक सजा पूरी नहीं की है, तो वह संबंधित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अथवा पुलिस स्टेशन में आत्मसमर्पण करे। आत्मसमर्पण न करने की स्थिति में, पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की कार्रवाई की जाए।


मामला: नागराजन बनाम तमिलनाडु राज्य
मामला संख्या: आपराधिक अपील सं. 2892-2893 / 2025 (SLP (Crl.) सं. 621-622 / 2024 से उद्भूत)

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