बलात्कार और एससी/एसटी अधिनियम के मामलों में जमानत की मंजूरी से पहले शिकायतकर्ता/पीड़ित की सुनवाई आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट

पीड़ित अधिकारों पर जोर देते हुए एक महत्वपूर्ण फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत गंभीर अपराधों से जुड़े एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए जमानत आदेशों को पलट दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत देने से पहले ऐसे मामलों में पीड़ितों या उनके प्रतिनिधियों की सुनवाई करने की अनिवार्य कानूनी आवश्यकता को दोहराया।

मामले की पृष्ठभूमि

अपील, आपराधिक अपील संख्या 5385/2024 और 5386/2024, अपीलकर्ता द्वारा दायर की गई थी, जिसे “एक्स” के रूप में संदर्भित किया गया था, जो इस मामले में पीड़ित है। अपील में 2021 की एफआईआर संख्या 599 के संबंध में आरोपी खड़गेश उर्फ ​​गोलू और करण को जमानत देने के हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। इस मामले में आईपीसी की धारा 323, 363, 376डीए, 506 और 392, पोक्सो अधिनियम की धारा 5(जी) और 6 तथा एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(2) और 5(ए) के तहत अपहरण, सामूहिक बलात्कार और अन्य गंभीर आरोप शामिल थे।

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कानूनी मुद्दे और टिप्पणियां

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सुप्रीम कोर्ट ने इस महत्वपूर्ण सवाल पर विचार किया कि क्या एससी/एसटी अधिनियम के तहत बलात्कार और अत्याचार जैसे जघन्य अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपी को जमानत दिए जाने से पहले पीड़िता या शिकायतकर्ता की बात सुनी जानी चाहिए। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि जमानत की कार्यवाही के दौरान पीड़िता की उपस्थिति सुनिश्चित करने में विफल रहने पर हाईकोर्ट ने वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है।

न्यायालय ने दो प्रमुख प्रावधानों पर प्रकाश डाला:

– दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 439(1ए) आईपीसी की धारा 376 के तहत विशिष्ट अपराधों के लिए जमानत की सुनवाई के दौरान शिकायतकर्ता या उनके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की उपस्थिति को अनिवार्य बनाती है।

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– एससी/एसटी अधिनियम की धारा 15ए(3) के तहत विशेष लोक अभियोजक को पीड़ित को जमानत आवेदनों सहित अदालती कार्यवाही के बारे में सूचित करना आवश्यक है।

न्यायालय ने कहा कि दोनों प्रावधानों को हाईकोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया, जिसने “आकस्मिक और सरसरी तरीके से” जमानत दे दी।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने माना कि जमानत देने के हाईकोर्ट के आदेश अनिवार्य वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हैं। यह देखते हुए कि इस तरह की चूक गंभीर आपराधिक मामलों में पीड़ितों के अधिकारों को कमजोर करती है, पीठ ने टिप्पणी की:

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“जमानत की कार्यवाही के दौरान शिकायतकर्ता या पीड़ित के प्रतिनिधि की उपस्थिति वैकल्पिक नहीं बल्कि एक वैधानिक अनिवार्यता है। इसकी अनदेखी करना पीड़ित को न्याय से वंचित करने के समान है।”

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जमानत आदेशों को खारिज कर दिया और आरोपी को 30 दिसंबर, 2024 तक ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।

प्रतिनिधित्व

अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता प्रणव सचदेवा और जतिन भारद्वाज ने किया, जबकि प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व डॉ. विजेंद्र सिंह और विकास बंसल ने किया।

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