बॉम्बे हाईकोर्ट: व्यभिचार का संदेह नाबालिग पर डीएनए टेस्ट थोपने का पर्याप्त आधार नहीं

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि केवल व्यभिचार (adultery) के संदेह के आधार पर किसी नाबालिग बच्चे को पितृत्व निर्धारण के लिए डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे आनुवंशिक परीक्षण केवल असाधारण परिस्थितियों में ही कराए जा सकते हैं, और इसमें बच्चे के सर्वोत्तम हितों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

न्यायमूर्ति आर.एम. जोशी ने 1 जुलाई को पारित आदेश में एक पारिवारिक अदालत के 2020 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें 12 वर्षीय बालक को डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए निर्देशित किया गया था। यह आदेश उस व्यक्ति के अनुरोध पर दिया गया था, जो महिला का पृथक रह रहा पति है।

READ ALSO  हाई कोर्ट की फटकार के बाबजूद, उत्तराखंड सरकार अपने फैसले पर कायम, 1 जुलाई से शुरू होगी चारधाम यात्रा

न्यायमूर्ति जोशी ने कहा, “यह सवाल उठता है कि क्या यह मामला डीएनए टेस्ट का आदेश देने के लिए उपयुक्त है? इसका स्पष्ट उत्तर है – नहीं।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि भले ही व्यभिचार का आरोप लगाया गया हो, इसे साबित करने के लिए अन्य साक्ष्यों का सहारा लिया जा सकता है — बच्चे को डीएनए जांच में घसीटने की आवश्यकता नहीं है।

Video thumbnail

यह याचिका महिला और उसके पुत्र द्वारा दायर की गई थी, जिसमें पारिवारिक अदालत के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें बच्चे को यह निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण से गुजरने को कहा गया था कि क्या वह व्यक्ति — जिसने व्यभिचार के आधार पर तलाक की अर्जी दी थी — उसका जैविक पिता है। इस दंपती का विवाह 2011 में हुआ था और वे जनवरी 2013 में अलग हो गए थे, जब महिला तीन माह की गर्भवती थी।

हाईकोर्ट ने विशेष रूप से यह नोट किया कि भले ही पति ने तलाक की कार्यवाही में पत्नी के “व्यभिचारी आचरण” का आरोप लगाया हो, उसने बच्चे की पितृत्व को स्पष्ट रूप से अस्वीकार नहीं किया था।

READ ALSO  बंदी जो भाषा समझता है उस भाषा में उसको लिखित कारणों को ना बताना अनुच्छेद 22(5) का उल्लंघन है- जानिए हाई कोर्ट का निर्णय

“पारिवारिक अदालत के लिए यह आवश्यक था कि वह बच्चे के सर्वोत्तम हित को प्राथमिकता दे,” हाईकोर्ट ने कहा। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि किसी को भी जबरन ब्लड टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, खासकर ऐसे नाबालिग को, जो न तो अपनी सहमति दे सकता है और न ही परीक्षण के परिणामों को समझ सकता है।

न्यायालय ने कहा, “जब माता-पिता आपसी विवाद में उलझे हों, तब बच्चा अक्सर एक मोहरे की तरह बन जाता है। ऐसी स्थिति में अदालतों की जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चे के अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करें।”

READ ALSO  बॉम्बे हाईकोर्ट: "ससुराल की मानसिक शांति के लिए बहू को बेघर नहीं किया जा सकता"
Ad 20- WhatsApp Banner

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles