2017 में गुरुग्राम के एक स्कूल में सात वर्षीय छात्र की हत्या मामले में आरोपी बनाए गए हरियाणा पुलिस के दो अधिकारियों ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट का रुख किया है। उन्होंने उनके खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की है, यह तर्क देते हुए कि ट्रायल कोर्ट ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 197 के तहत आवश्यक सरकारी मंजूरी के बिना ही संज्ञान ले लिया।
न्यायमूर्ति मंजरी नेहरू कौल ने इस याचिका पर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), हरियाणा राज्य और अन्य प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया है। मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को निर्धारित की गई है।
वरिष्ठ अधिवक्ताओं बिपन घई और विनोद घई, तथा निकिल घई, अर्णव घई, अखिल गोदारा और आर.एस. बग्गा ने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश होकर पंचकूला के सीबीआई विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा 13 जून को पारित आदेश को चुनौती दी। उनका कहना है कि यह आदेश पहले दिए गए 15 जनवरी 2021 के उस निर्णय की “पुनर्समीक्षा” जैसा है, जिसमें अदालत ने स्पष्ट रूप से यह कहते हुए संज्ञान लेने से इनकार कर दिया था कि सरकारी मंजूरी प्राप्त नहीं हुई।

“इस बीच कोई नई मंजूरी प्राप्त नहीं हुई, फिर भी मात्र शिकायतकर्ता द्वारा दायर एक अर्जी के आधार पर संज्ञान ले लिया गया,” अधिवक्ताओं ने कहा। उन्होंने इसे “अवैध पुनर्विचार” और “कानून की दृष्टि से असंवैधानिक” बताया।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि उन पर लगाए गए आरोप उनके आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए कार्यों से संबंधित हैं, इसलिए उन्हें CrPC की धारा 197 के तहत संरक्षण प्राप्त है। यह धारा बिना पूर्व सरकारी स्वीकृति के किसी भी लोक सेवक के खिलाफ अदालत द्वारा संज्ञान लेने पर रोक लगाती है।
इस याचिका में एक वरिष्ठ सहायक पुलिस आयुक्त भी शामिल हैं।
यह मामला उस बहुचर्चित हत्या से जुड़ा है जिसमें 2017 में दूसरी कक्षा के एक छात्र की स्कूल के वॉशरूम में गला रेतकर हत्या कर दी गई थी। शुरुआत में हरियाणा पुलिस ने स्कूल बस कंडक्टर अशोक कुमार को गिरफ्तार किया था, लेकिन व्यापक जनाक्रोश और मीडिया की सक्रियता के बाद जांच सीबीआई को सौंप दी गई।
सीबीआई ने जांच में पाया कि अशोक कुमार को झूठा फंसाया गया था और हत्या का असली आरोपी एक सहपाठी छात्र था, जिसकी पहचान “भोला” (काल्पनिक नाम) के रूप में की गई। एजेंसी ने आरोप लगाया कि हरियाणा पुलिस की एसआईटी ने साक्ष्य गढ़े और गवाहों को जबरदस्ती बयान दिलवाए।
अब हाईकोर्ट यह तय करेगा कि क्या बिना सरकारी मंजूरी के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही आगे बढ़ाई जा सकती है। यह मामला न केवल बाल सुरक्षा और पुलिस जांच प्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी तय करेगा कि लोक सेवकों को कानूनी सुरक्षा कैसे और कब मिलनी चाहिए।