बॉम्बे हाईकोर्ट ने जर्मनी में अपनी मां के साथ रह रहे छह साल के बच्चे की कस्टडी और उसे भारत लाने के लिए पिता द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) याचिका को खारिज कर दिया है। जस्टिस रवींद्र वी. घुगे और जस्टिस गौतम ए. अनखाड की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि चूंकि बच्चे की कस्टडी मां के पास है, जिसे अवैध नहीं माना जा सकता, और बच्चा जनवरी 2020 से जर्मनी में रह रहा है, इसलिए बच्चे के कल्याण को देखते हुए उसे उसके वर्तमान वातावरण से हटाना उचित नहीं होगा।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता (पिता) एक भारतीय नागरिक हैं, जबकि प्रतिवादी संख्या 2 (मां) एक जर्मन नागरिक हैं। दोनों का विवाह 4 मार्च 2017 को गोवा में हुआ था और 25 मई 2019 को उनके बेटे का जन्म हुआ। 29 जनवरी 2020 को मां अपने बेटे के साथ जर्मनी अपने परिवार से मिलने गई थीं। इसके बाद कोविड-19 महामारी और यात्रा प्रतिबंधों के कारण वे भारत वापस नहीं लौटीं। पिता ने मार्च 2022 में एक बार जर्मनी जाकर उनसे मुलाकात की थी।
मां ने 28 मार्च 2024 को जर्मनी के वुर्जबर्ग (Würzburg) जिला न्यायालय में कस्टडी के लिए कार्यवाही शुरू की थी। पिता को समन भेजा गया था, लेकिन उन्होंने उस कार्यवाही में हिस्सा नहीं लिया। मां और बच्चा 26 जुलाई 2024 से 27 अगस्त 2024 के बीच कुछ समय के लिए भारत आए थे और फिर वापस जर्मनी लौट गए।
पिता ने सितंबर 2024 में बॉम्बे हाईकोर्ट में यह याचिका दायर की, जिसमें आरोप लगाया गया कि मां ने बच्चे को उनकी कस्टडी से गैरकानूनी रूप से हटा दिया है। इस बीच, जर्मन कोर्ट ने 18 अगस्त 2025 को एक अंतिम आदेश पारित करते हुए बच्चे की एकमात्र कस्टडी (Sole Custody) मां को सौंप दी।
पक्षकारों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अमन हिंगोरानी ने तर्क दिया कि बच्चा मूल रूप से भारतीय नागरिक था और गुजरात के गोंडल का स्थायी निवासी है। उन्होंने आरोप लगाया कि 2024 में गोवा में छुट्टियों के दौरान पिता को पता चला कि मां ने अपनी वैवाहिक स्थिति को गलत तरीके से “सिंगल” बताकर बच्चे का जर्मन पासपोर्ट बनवा लिया और उसका भारतीय पासपोर्ट सरेंडर कर दिया।
श्री हिंगोरानी ने दलील दी कि मां 27 अगस्त 2024 को बच्चे को गैरकानूनी तरीके से भारत से ले गईं और चूंकि विवाह हिंदू कानून के तहत हुआ था, इसलिए जर्मन कोर्ट का क्षेत्राधिकार नहीं बनता। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के एलिजाबेथ दिनशॉ बनाम अरविंद दिनशॉ और तेजस्विनी गौड़ बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी के फैसलों का हवाला देते हुए ‘यथास्थिति’ (status quo ante) बहाल करने की मांग की।
दूसरी ओर, प्रतिवादी मां की ओर से पेश अधिवक्ता विक्रमादित्य देशमुख ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि बच्चा आठ महीने की उम्र से जर्मनी में रह रहा है और वही उसका “प्राकृतिक आवास” (natural habitat) है। उन्होंने कहा कि जर्मन पासपोर्ट इसलिए जारी किया गया क्योंकि मां जन्म से जर्मन नागरिक हैं।
श्री देशमुख ने तर्क दिया कि वुर्जबर्ग कोर्ट के कस्टडी आदेश बाध्यकारी हैं और पिता ने न तो उन आदेशों को चुनौती दी और न ही भारत में ‘गार्जियंस एंड वार्ड्स एक्ट’ के तहत कस्टडी के लिए कोई कार्यवाही शुरू की। उन्होंने नित्या आनंद राघवन बनाम एनसीटी ऑफ दिल्ली और जोस टोरल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामलों का हवाला देते हुए कहा कि चूंकि बच्चे का पता ज्ञात है और वह अवैध हिरासत में नहीं है, इसलिए यह याचिका पोषणीय नहीं है।
कोर्ट का विश्लेषण और अवलोकन
हाईकोर्ट ने जोर देकर कहा कि बच्चे की कस्टडी से जुड़े मामलों में “सबसे महत्वपूर्ण विचार हमेशा बच्चे का कल्याण और सर्वोत्तम हित होता है।”
बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के दायरे पर विचार करते हुए, पीठ ने कहा:
“बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का दायरा उस व्यक्ति का पता लगाने तक सीमित है जो लापता है या जिसे गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया है… मौजूदा मामले में, रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दर्शाता हो कि प्रतिवादी मां ने बच्चे को गैरकानूनी हिरासत में रखा है या वह अपने बेटे की उचित देखभाल करने में असमर्थ हैं।”
कोर्ट ने नोट किया कि बच्चा पिछले पांच वर्षों से लगातार जर्मनी में रह रहा है और अब एक जर्मन नागरिक है। कोर्ट ने इस कार्यवाही में जर्मन पासपोर्ट के कथित रूप से धोखाधड़ी से प्राप्त किए जाने के आरोपों पर विचार करने से इनकार कर दिया।
हाईकोर्ट ने वुर्जबर्ग कोर्ट के 18 अगस्त 2025 के आदेश का संज्ञान लिया, जिसमें मां को कस्टडी दी गई थी। जर्मन कोर्ट ने पाया था कि पिता का “अपने बेटे के साथ कोई वास्तविक रिश्ता नहीं है” और बच्चा जर्मनी में “अच्छी तरह से विकसित हो रहा है।”
पिता द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा:
“बच्चे की कस्टडी मां के पास है, जो उसकी प्राकृतिक अभिभावक भी हैं। वुर्जबर्ग कोर्ट ने भी इसकी अनुमति दी है, इसलिए कस्टडी को अवैध नहीं कहा जा सकता… हमारे विचार में, बच्चे का सर्वोत्तम हित उसके मौजूदा वातावरण यानी जर्मनी में ही सुरक्षित रहेगा, जहां वह जनवरी 2020 से रह रहा है।”
पीठ ने इस बात पर भी नाराजगी जताई कि पिता ने भारत में ‘गार्जियंस एंड वार्ड्स एक्ट, 1890’ या ‘हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट, 1956’ के तहत कानूनी उपचार नहीं मांगा।
फैसला
बॉम्बे हाईकोर्ट ने आपराधिक रिट याचिका को खारिज कर दिया और फैसला सुनाया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने का कोई मामला नहीं बनता है।
हालांकि, कोर्ट ने निर्देश दिया:
“हम यह स्पष्ट करते हैं कि प्रतिवादी मां, याचिकाकर्ता और उनके परिवार के सदस्यों के लिए वीडियो कॉल की सुविधा जारी रखेंगी।”
पीठ ने स्पष्ट किया कि बच्चे के कल्याण के संबंध में उसकी टिप्पणियां केवल वर्तमान याचिका का निर्णय करने तक सीमित हैं और भविष्य में सक्षम अदालतें कानून के अनुसार कस्टडी के मामले में अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं।
केस डीटेल्स:
- केस टाइटल: ज्योतिर्मयसिंहजी उपेंद्रसिंहजी जडेजा बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल रिट पिटीशन नंबर 2540 ऑफ 2025
- कोरम: जस्टिस रवींद्र वी. घुगे और जस्टिस गौतम ए. अनखाड
- याचिकाकर्ता के वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अमन हिंगोरानी, सुष्मिता शेरिगर और कृष्णा बारोट के साथ
- प्रतिवादी नंबर 2 के वकील: अधिवक्ता सपना रचूरे द्वारा नियुक्त श्री विक्रमादित्य देशमुख और प्रिया चौबे

