गुजरात हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद (मुबारात) के लिए लिखित समझौता आवश्यक नहीं है। अदालत ने यह भी माना कि ऐसा विवाह-विच्छेद घोषित करने के लिए दायर फैमिली सूट, फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 7 के तहत सुनवाई योग्य है।
न्यायमूर्ति ए.वाई. कोगजे और न्यायमूर्ति एन.एस. संजय गौड़ा की खंडपीठ ने राजकोट फैमिली कोर्ट का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें पति-पत्नी द्वारा दायर संयुक्त वाद को सुनवाई योग्य न मानकर खारिज कर दिया गया था। दंपति ने 15 मार्च 2021 को सम्पन्न हुए अपने निकाह को मुबारात के माध्यम से समाप्त घोषित करने की मांग की थी, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत मान्यता प्राप्त है।
पृष्ठभूमि
अपीलकर्ताओं का निकाह इस्लामी शरीयत और जातीय रीति-रिवाजों के अनुसार मधुबनी (बिहार) में हुआ था। विवाह के बाद दोनों राजकोट में साथ रहे और उनके तीन बच्चे हुए। समय के साथ मतभेद इतने बढ़ गए कि दोनों ने अलग रहना शुरू कर दिया और एक वर्ष से अधिक समय से अलग हैं। पारिवारिक बड़ों की सुलह कराने की कोशिश नाकाम रही।

दोनों ने आपसी सहमति से विवाह समाप्त करने का निर्णय लिया और फैमिली कोर्ट में विवाह-विच्छेद की घोषणा हेतु वाद दायर किया। फैमिली कोर्ट ने यह कहते हुए वाद खारिज कर दिया कि मुबारात के लिए लिखित समझौता जरूरी है और वाद वर्तमान स्वरूप में सुनवाई योग्य नहीं है।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ताओं के वकील ने दलील दी कि फैमिली कोर्ट्स एक्ट की धारा 7 विवाह की स्थिति घोषित करने का अधिकार देती है और शरीयत में मुबारात के लिए लिखित समझौते की कोई अनिवार्यता नहीं है। फैमिली कोर्ट ने गलत तरीके से यह शर्त लगाई।
सरकारी पक्ष ने फैमिली कोर्ट के आदेश का समर्थन करते हुए कहा कि वास्तविक रूप से यह विवाह-विच्छेद का मामला है, जो पर्सनल लॉ के तहत आता है, और इसके लिए आवश्यक औपचारिकताओं का पालन होना चाहिए।
अदालत का विश्लेषण
पीठ ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 का हवाला दिया, जिसमें मुबारात को विवाह-विच्छेद के एक तरीके के रूप में मान्यता प्राप्त है। अदालत ने डॉ. पारस दीवान की फैमिली लॉ, अकील अहमद की मोहम्मडन लॉ और सर्वोच्च न्यायालय के जोहरा खातून बनाम मोहम्मद इब्राहिम (1981) 2 SCC 509 के निर्णय का संदर्भ देते हुए कहा —
“कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि मुबारात के लिए लिखित समझौता अनिवार्य है, और न ही ऐसा कोई प्रचलन है जिसमें आपसी सहमति से हुए इस तरह के निकाह-विच्छेद को दर्ज करने के लिए रजिस्टर बनाए जाते हों।”
अदालत ने माना कि निकाह समाप्त करने के लिए आपसी सहमति व्यक्त करना ही मुबारात के लिए पर्याप्त है, और लिखित रूप अनिवार्य शर्त नहीं है।
पीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट के शबनम परवीन अहमद बनाम मोहम्मद सालिया शेख (2024) और दिल्ली हाईकोर्ट के MAT.APP.(F.C.) 37/2023 (07.11.2024) के फैसलों का भी हवाला दिया, जिनमें यह कहा गया कि फैमिली कोर्ट, धारा 7 के तहत, मुबारात द्वारा विवाह-विच्छेद को घोषित कर सकती है।
निर्णय
अदालत ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने वाद खारिज कर गलती की, क्योंकि यह मामला साक्ष्य लेकर तय करने योग्य है और फैमिली कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आता है।
राजकोट फैमिली कोर्ट का 19 अप्रैल 2025 का आदेश रद्द करते हुए मामला सुनवाई के लिए वापस भेजा गया और निर्देश दिया गया कि तीन माह के भीतर मामले का निस्तारण किया जाए।