गुजरात हाईकोर्ट ने जनहित याचिका (PIL) के दुरुपयोग पर सख्त रुख अपनाते हुए सात याचिकाकर्ताओं पर कुल ₹1.4 करोड़ का भारी जुर्माना लगाया है। याचिका एक बिल्डर को मिली विकास अनुमति को रद्द कराने की मांग को लेकर दायर की गई थी, जिसे अदालत ने “व्यक्तिगत विद्वेष” से प्रेरित और “धोखाधड़ीपूर्ण” करार दिया।
मुख्य न्यायाधीश सुनीता अग्रवाल और न्यायमूर्ति डी. एन. राय की खंडपीठ ने इस याचिका को खारिज करते हुए प्रत्येक याचिकाकर्ता पर ₹20 लाख का जुर्माना लगाया। अदालत ने आदेश दिया कि यह राशि गुजरात राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (Gujarat State Legal Services Authority) को दी जाएगी और इसे अनाथ बच्चों के कल्याण में उपयोग किया जाएगा।
शुक्रवार को हुई सुनवाई में अदालत ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा, “ऐसे धोखेबाज़ याचिकाकर्ताओं के लिए अदालत में कोई स्थान नहीं है जो अपनी पहचान तक नहीं बताते। ये कौन लोग हैं, कोई नहीं जानता। क्या काम करते हैं, कुछ नहीं बताया। सभी स्वतंत्र व्यक्ति हैं, इसलिए ₹20 लाख प्रत्येक पर।”

अदालत ने साफ किया कि जब तक याचिकाकर्ता अपनी साख और पहचान स्पष्ट नहीं करते, तब तक उनकी शिकायत पर विचार नहीं किया जा सकता। “सिर्फ याचिका में नाम लिख देने से वह जनहित याचिका नहीं बन जाती,” अदालत ने कहा।
पीठ ने स्पष्ट किया, “हमारे नियम और जनहित याचिका का कानून यही कहता है कि जो कोई भी अदालत में जनहित के नाम पर आए, उसकी यह ज़िम्मेदारी है कि वह दिखाए कि वह एक जनहितैषी व्यक्ति है।”
प्रतिवादी के वकील ने बताया कि याचिकाकर्ता उसी संपत्ति से जुड़े एक रंगदारी (extortion) मामले में आरोपपत्रित हैं और बिल्डर के साथ उनके व्यावसायिक विवाद हैं। यह याचिका एक निजी रंजिश के चलते दायर की गई थी।
अदालत ने कहा कि विकास अनुमति नियमों के अनुसार दी गई है और यदि याचिकाकर्ता को कोई शिकायत थी, तो वे सामान्य प्रक्रिया के तहत व्यक्तिगत रूप से रिट याचिका दाखिल कर सकते थे। “आप जनहित का दिखावा कर अपने निजी आक्रोश को उजागर कर रहे हैं… आप यह नहीं कह सकते कि मैं सिर्फ प्रशासन की निष्क्रियता पर सवाल उठा रहा हूं,” अदालत ने फटकार लगाई।