न्यायिक संस्थानों में लैंगिक समानता की दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को आदेश दिया कि गुजरात हाईकोर्ट और ज़िला बार एसोसिएशनों की कार्यकारिणी में 30 प्रतिशत सीटें तथा कोषाध्यक्ष का पद महिला वकीलों के लिए आरक्षित किया जाए।
यह आदेश न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह की पीठ ने मीना ए. जगताप बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया मामले में पारित किया। यह याचिका गुजरात हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाली वकील मीना ए. जगताप द्वारा दाखिल की गई थी, जिसमें राज्य की सभी बार एसोसिएशनों और बार काउंसिल ऑफ गुजरात में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की मांग की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक राहत देते हुए स्पष्ट किया कि बार काउंसिल ऑफ गुजरात में आरक्षण से संबंधित याचिकाकर्ता की प्रार्थना पर बाद के चरण में विचार किया जाएगा, ताकि इसका समुचित मूल्यांकन सभी राज्य बार काउंसिलों और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के संदर्भ में किया जा सके।
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक मामले में सुप्रीम कोर्ट के पहले के निर्णय का हवाला देते हुए तर्क दिया था कि महिला आरक्षण की अनुपस्थिति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन करती है। याचिका में भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र महिला भेदभाव उन्मूलन संधि (CEDAW) के तहत की गई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का भी उल्लेख किया गया।
याचिका में कहा गया:
“गुजरात राज्य में महिला वकीलों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है और वे अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हो रही हैं, परंतु नेतृत्व के पदों पर उनका प्रतिनिधित्व अत्यंत न्यून है। यह असंतुलन विशेष रूप से युवा महिला अधिवक्ताओं को प्रभावित करता है, क्योंकि महिलाओं से संबंधित मुद्दों को प्रभावी रूप से वही समझ और समाधान कर सकती हैं, जो निर्णय लेने की स्थिति में हों।”
इसके अतिरिक्त, याचिका में भारतीय संस्कृति में महिलाओं की प्रतिष्ठा का भी उल्लेख करते हुए कहा गया कि प्राचीन भारतीय परंपराएं महिलाओं को ‘देवी’ के रूप में पूजनीय मानती रही हैं और उन्हें पुरुषों के समकक्ष सम्मान प्रदान करती रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट पूर्व में इसी प्रकार के निर्देश सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली, कर्नाटक और बेंगलुरु की बार एसोसिएशनों में भी महिला वकीलों के लिए आरक्षण को लेकर दे चुकी है।
कोर्ट ने कहा,
“गुजरात के संबंध में भिन्न दृष्टिकोण अपनाने का कोई औचित्य नहीं है,”
और इस प्रकार राज्य की कानूनी संस्थाओं में भी लैंगिक प्रतिनिधित्व के समान सिद्धांत को विस्तारित किया।