नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ के समक्ष जारी सुनवाई के तीसरे दिन केंद्र सरकार ने राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों का जोरदार बचाव किया। केंद्र ने दलील दी कि यदि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई के लिए राज्यपालों को निश्चित समयसीमा में बांधा गया, तो यह संवैधानिक पद की गरिमा और अधिकार को कम कर देगा।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ एक राष्ट्रपतिीय संदर्भ पर सुनवाई कर रही है जिसमें सवाल उठाया गया है कि क्या राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने हेतु निश्चित समयसीमा तय की जा सकती है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से पेश होते हुए कहा कि राज्यपाल की स्थिति “सुइ जेनेरिस” (अद्वितीय) है, और वे केवल एक प्रतीकात्मक पदाधिकारी या “शोपीस” नहीं हैं। उन्होंने संविधान सभा की विस्तृत बहसों का हवाला देते हुए कहा कि संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच एक मार्गदर्शक और सेतु की भूमिका निभाएं।

यह मामला अनुच्छेद 143 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट से कानूनी राय मांगे जाने पर सामने आया। यह संदर्भ तमिलनाडु सरकार की ओर से दाखिल उस याचिका के संदर्भ में है जिसमें राज्यपाल द्वारा बार-बार पारित किए गए विधेयकों को मंजूरी देने में अत्यधिक देरी पर सवाल उठाए गए थे। कोर्ट ने उस देरी को “अत्यंत गंभीर” बताया था, विशेष रूप से जब कुछ विधेयक 2020 से लंबित थे।
मेहता ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार राज्यपाल राज्य विधानमंडल का “अभिन्न हिस्सा” हैं और यह भूमिका पारंपरिक कार्यपालिका-विधानपालिका विभाजन से परे जाती है। उन्होंने कहा कि राज्यपाल को “राज्यपुरुष” की तरह कार्य करना चाहिए, जो राजनीतिक पक्षपात से ऊपर हों।
संविधान सभा के सदस्य महावीर त्यागी का उद्धरण देते हुए मेहता ने कहा:
“राज्य को एकीकृत बनाए रखने के लिए राज्यपाल एक एजेंसी की तरह कार्य करेंगे जो केंद्र की नीति की रक्षा और पालन सुनिश्चित करेगा।”
उन्होंने त्यागी के इस कथन को भी उद्धृत किया:
“लोकतंत्र को अपना मार्ग मिलना चाहिए, लेकिन उसे अराजकता में नहीं बदलने देना चाहिए।”
इसी तरह पंडित ठाकुर दास भार्गव के विचारों का भी हवाला दिया गया:
“यह कहना गलत है कि राज्यपाल केवल एक डमी या स्वचालित यंत्र होंगे… राज्यपाल को मंत्रिपरिषद और आम जनता दोनों के लिए एक मार्गदर्शक, दार्शनिक और मित्र की भूमिका निभानी होगी।”
मेहता ने यह भी स्पष्ट किया कि कुछ परिस्थितियों में राज्यपाल को विवेकाधीन अधिकार प्राप्त हैं, जैसे:
- जब संविधान विशेष रूप से इसकी अनुमति देता है
- जब मुख्यमंत्री के पास बहुमत नहीं बचा हो और सदन को बुलाना हो
- जब मंत्रिपरिषद की सलाह पूर्वाग्रही हो, जैसे उनके स्वयं के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति का मामला
अदालत की टिप्पणियाँ
हालांकि गुरुवार की सुनवाई मुख्यतः केंद्र की दलीलों पर केंद्रित रही, लेकिन पहले की सुनवाई में पीठ ने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए थे। बुधवार को मुख्य न्यायाधीश गवई ने सवाल किया था कि क्या चुनी हुई राज्य सरकारें राज्यपालों की “मनमानी और इच्छाओं” पर निर्भर रह जाएंगी? उन्होंने यह भी पूछा कि क्या राज्यपालों को “निर्वाचित प्रतिनिधियों के ऊपर अपील की शक्ति” दे दी गई है?
गुरुवार को सीजेआई ने न्यायिक सक्रियता पर टिप्पणी करते हुए कहा:
“मैं हमेशा इस सिद्धांत का समर्थक रहा हूं कि न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए।”
यह टिप्पणी न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्रों में हस्तक्षेप पर केंद्रित थी।
सुप्रीम कोर्ट इस मामले में अभी भी सुनवाई कर रही है और विभिन्न पक्षों की दलीलें सुनने के बाद राष्ट्रपति को अपनी राय देगी।