वित्तीय तंगी कर्मचारी के नियमितीकरण से इनकार करने का आधार नहीं हो सकती: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक रोजगार से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि वित्तीय तंगी को “न्याय, तर्क और वैध तरीके से कार्य के संगठन” पर हावी होने वाला मंत्र नहीं बनाया जा सकता। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने माना कि जब कोई संस्था दशकों से स्थायी कार्यों के लिए दैनिक वेतनभोगियों पर निर्भर है, तो राज्य का केवल “वित्तीय संकट” का हवाला देकर पदों को स्वीकृति देने से इनकार करना मनमाना है। अदालत ने उत्तर प्रदेश सरकार के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिनमें उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में पद सृजन से इनकार किया गया था, और छह कर्मचारियों के 2002 से प्रभावी नियमितीकरण का निर्देश दिया।

मामला क्या था

यह मामला छह अपीलकर्ताओं से जुड़ा था, जिन्हें 1989 से 1992 के बीच उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग (“आयोग”) में नियुक्त किया गया था। इनमें से पांच क्लास-4 के पदों पर और एक क्लास-3 चालक के पद पर कार्यरत थे, जो आवश्यक लिपिकीय और सहायक कार्य करते थे। प्रारंभ में इन्हें दैनिक वेतन पर रखा गया और बाद में समेकित मासिक वेतन दिया गया।

24 अक्टूबर 1991 को आयोग ने 14 स्थायी पद सृजित करने का प्रस्ताव पारित किया और राज्य सरकार से स्वीकृति मांगी। वर्षों तक यह मांग दोहराई गई और 1998 में आयोग ने 14 दैनिक वेतनभोगियों, जिनमें अपीलकर्ता भी शामिल थे, की सूची सरकार को भेजी।

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लेकिन 11 नवंबर 1999 को राज्य ने “वित्तीय संकट” का हवाला देते हुए प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ताओं ने 2000 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की। 2002 में उच्च न्यायालय ने मामले पर पुनर्विचार और अपीलकर्ताओं को न्यूनतम वेतनमान देने का निर्देश दिया। इसके बावजूद, 25 नवंबर 2003 को राज्य ने फिर से वित्तीय संकट और नए पद सृजन पर रोक का हवाला देकर स्वीकृति से इनकार कर दिया।

2009 में एकल न्यायाधीश ने नियमितीकरण के नियम न होने, रिक्तियों के अभाव और सेक्रेटरी, स्टेट ऑफ कर्नाटक बनाम उमादेवी के फैसले का हवाला देते हुए याचिका खारिज कर दी। 2017 में खंडपीठ ने भी यह फैसला बरकरार रखा, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और निष्कर्ष

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि उच्च न्यायालय ने इस मामले को केवल नियमितीकरण की याचिका मानकर गलती की और राज्य द्वारा पदों को मंजूरी देने से इनकार की मनमानी पर विचार नहीं किया। यह “न्यायिक क्षेत्राधिकार के प्रयोग में विफलता” थी।

वित्तीय संकट का आधार

अदालत ने राज्य के इनकार को अस्थिर और मनमाना बताया। कहा कि “‘वित्तीय संकट’ का सामान्य हवाला देकर, कार्यात्मक आवश्यकता और नियोक्ता द्वारा लंबे समय से नियमित कार्यों के लिए दैनिक वेतनभोगियों पर निर्भरता को नजरअंदाज करना, एक आदर्श सार्वजनिक संस्था से अपेक्षित तर्कसंगतता के मानक पर खरा नहीं उतरता।” अदालत ने स्पष्ट किया, “वित्तीय तंगी का सार्वजनिक नीति में स्थान है, लेकिन यह न्याय, तर्क और वैध तरीके से कार्य के संगठन पर हावी होने वाला मंत्र नहीं है।”

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रिक्तियों का प्रश्न

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि “रिक्ति न होने” का उच्च न्यायालय का निष्कर्ष रिकॉर्ड से मेल नहीं खाता। आरटीआई उत्तर और एक आवेदन से कम से कम पांच क्लास-4 और एक चालक का पद खाली होना साबित हुआ। अदालत ने समान रूप से कार्यरत अन्य दैनिक वेतनभोगियों के चयनात्मक नियमितीकरण को “असमान व्यवहार” और “न्याय के उल्लंघन” का उदाहरण बताया।

उमादेवी फैसले का गलत प्रयोग

अदालत ने कहा कि इस मामले में उमादेवी फैसले का सहारा लेना गलत था। यह “संविधान के तहत सार्वजनिक रोजगार की योजना को दरकिनार करने का प्रयास” नहीं बल्कि “राज्य द्वारा पदों को मंजूरी देने से इनकार की मनमानी” को चुनौती थी, जबकि नियोक्ता स्वयं पदों की आवश्यकता स्वीकार कर चुका था। अदालत ने जैगो बनाम भारत संघ और श्रीपाल बनाम नगर निगम, गाजियाबाद मामलों का हवाला देते हुए कहा कि उमादेवी का इस्तेमाल लंबे समय तक ‘एड-हॉक’ व्यवस्था के जरिए शोषण को जायज ठहराने के लिए नहीं किया जा सकता।

आउटसोर्सिंग और नई नीति

अदालत ने राज्य की हालिया पुनर्गठन और क्लास-4 सेवाओं को आउटसोर्स करने की नीति पर दलील को खारिज करते हुए कहा कि “बाद में आई संरचनात्मक परिवर्तन पहले की मनमानी को वैध नहीं ठहरा सकते” और “बाद की आउटसोर्सिंग नीति पहले से लंबित दावों को समाप्त नहीं कर सकती।”

संवैधानिक नियोक्ता के रूप में राज्य

अदालत ने कहा कि “राज्य अपने बजट का संतुलन उन लोगों की पीठ पर नहीं कर सकता जो सबसे बुनियादी और बार-बार होने वाले सार्वजनिक कार्य करते हैं। लंबी असुरक्षा के मानवीय परिणामों के प्रति संवेदनशीलता कोई भावुकता नहीं, बल्कि संवैधानिक अनुशासन है।”

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए राज्य के इनकार आदेश रद्द कर दिए और विस्तृत निर्देश दिए:

  • नियमितीकरण – सभी अपीलकर्ताओं का 24 अप्रैल 2002 से नियमितीकरण किया जाए।
  • अधिशेष पद सृजन – नियमितीकरण के लिए राज्य और उत्तराधिकारी आयोग अधिशेष पद सृजित करें।
  • वेतनमान और वरिष्ठता – न्यूनतम नियमित वेतनमान दिया जाए और वरिष्ठता नियमितीकरण की तिथि से मानी जाए।
  • बकाया भुगतान – नियमित वेतनमान और वास्तविक भुगतान के अंतर के रूप में बकाया तीन माह के भीतर दिया जाए।
  • सेवानिवृत्त/स्व. अपीलकर्ता – लाभ पेंशन और अन्य सेवा समाप्ति देयकों के पुनर्गणना हेतु उनके या उनके कानूनी वारिसों को मिले।
  • अनुपालन शपथपत्र – चार माह में सुप्रीम कोर्ट में अनुपालन का शपथपत्र दाखिल किया जाए।

अदालत ने कहा कि ये आदेश “अधिकारों को वास्तविक परिणाम में बदलने और यह दोहराने के लिए हैं कि रोजगार में निष्पक्षता और प्रशासन में पारदर्शिता, अनुच्छेद 14, 16 और 21 के तहत दायित्व हैं, कोई अनुग्रह नहीं।”

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