यौन उत्पीड़न के झूठे आरोप अपराध जितना ही कष्ट पहुंचा सकते हैं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आरोपियों को बरी किया

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में सत्र मामला संख्या 622/2005 (राज्य बनाम प्रीतम एवं अन्य) से संबंधित आपराधिक अपीलों में सभी आरोपियों को बरी कर दिया, जो कि भारतीय दंड संहिता की धारा 363, 366, 368 और 376(जी) के तहत मामला अपराध संख्या 549/2004 से उत्पन्न हुई थी। अपीलों, सीआरएलए(ए) संख्या 5017/2009, 5646/2009, 5005/2009 और जेल अपील संख्या 5445/2009 में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, न्यायालय संख्या 2, बिजनौर द्वारा दोषसिद्धि और सजा सुनाए जाने को चुनौती दी गई थी।

ट्रायल कोर्ट ने प्रीतम और कासिम को धारा 376(जी) आईपीसी के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी और अपहरण, गलत तरीके से बंधक बनाने और अन्य आरोपों के लिए अन्य दंड लगाए थे। यह मामला एक ऐसी घटना से उपजा था जिसमें 16 वर्षीय पीड़िता का कथित तौर पर अपहरण किया गया था, उसका यौन उत्पीड़न किया गया था और उसे आपराधिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था। हालाँकि, हाईकोर्ट ने कई कानूनी और तथ्यात्मक विसंगतियों का हवाला देते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया।

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कानूनी मुद्दे

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1. पीड़िता की उम्र: एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि क्या कथित घटनाओं के समय पीड़िता नाबालिग थी। जबकि मुखबिर ने दावा किया कि वह 16 वर्ष की थी, किसी भी नगरपालिका या स्कूल के रिकॉर्ड ने इसकी पुष्टि नहीं की। मेडिकल साक्ष्य से पता चला कि वह 18 वर्ष से अधिक की थी, और संभवतः 20 वर्ष से अधिक की हो सकती है।

2. गवाही की विश्वसनीयता: पीड़िता के अपहरण और यौन उत्पीड़न के बारे में दिए गए बयानों को मेडिकल साक्ष्य और कथित कैद के दौरान उसके व्यवहार के आधार पर तौला गया। अदालत ने विरोधाभासों पर ध्यान दिया, जैसे हिंसा के दावों के बावजूद चोटों का न होना और सार्वजनिक रूप से यात्रा करते समय अलार्म न बजाना।

3. एफआईआर दर्ज करने में देरी: कथित अपहरण के एक महीने बाद एफआईआर दर्ज की गई, जिसके बारे में बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि यह दिल्ली में एक अलग अपहरण मामले में पीड़िता की कथित संलिप्तता से ध्यान हटाने के लिए एक सुनियोजित कदम था।

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4. चिकित्सा साक्ष्य: शारीरिक चोटों या नशे के निशानों की अनुपस्थिति ने पीड़िता के निरंतर शारीरिक हमले और जबरन नशा करने के दावों का खंडन किया।

अदालत की टिप्पणियां और निर्णय

न्यायमूर्ति अश्विनी कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति डॉ. गौतम चौधरी की पीठ ने स्थापित कानूनी सिद्धांतों के आलोक में साक्ष्य और पीड़िता की गवाही की जांच की। अदालत ने कहा:

“जबकि अभियोक्ता की गवाही को महत्वपूर्ण महत्व दिया जाता है, लेकिन जब साक्ष्य में विसंगतियां मौजूद हों तो इसे बिना पुष्टि के आँख मूंदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता।”

– झूठे आरोपों की संभावना पर प्रकाश डालते हुए, न्यायालय ने राजू बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008) और मनोहरलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2014) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों सहित उदाहरणों का हवाला दिया, जिसमें ऐसे मामलों में स्वतंत्र पुष्टि की आवश्यकता पर बल दिया गया।

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– न्यायालय ने टिप्पणी की: “झूठे निहितार्थों से इंकार नहीं किया जा सकता है, खासकर तब जब अभियोक्ता के पास दिल्ली में उसके खिलाफ दर्ज अपहरण के अपराध से खुद को दूर रखने का एक अलग मकसद था।”

हाईकोर्ट ने प्रीतम, कासिम, लाला उर्फ ​​शाकिर, अय्यूब, श्रीमती शाहजहां, जावेद और श्रीमती गुलशन को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 437-ए के अनुपालन के अधीन, अन्य मामलों में आवश्यक होने तक उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।

वकील और प्रतिनिधित्व

– अपीलकर्ताओं का प्रतिनिधित्व डी.के. दीवान, अफजल अहमद, इरशाद अहमद, मुख्तार आलम और एस.के. मिश्रा ने किया।

– राज्य का प्रतिनिधित्व सुरेन्द्र प्रसाद मिश्रा सहित सरकारी वकीलों ने किया।

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