आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए तलाक के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा है कि पत्नी द्वारा पति और उसके परिवार के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए और दहेज निषेध अधिनियम के तहत झूठा आपराधिक मामला दर्ज कराना — जो बाद में बरी होने पर समाप्त हुआ — हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) के तहत मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है।
पृष्ठभूमि
यह अपील गुन्टूर के प्रिंसिपल सीनियर सिविल जज द्वारा दिए गए तलाक के आदेश को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी। संबंधित विवाह अगस्त 1994 में संपन्न हुआ था। विवाह के शीघ्र बाद, पत्नी ने कथित रूप से पति को सूचित किया कि यह विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध हुआ था और उसने ऐसा व्यवहार किया जिससे मानसिक पीड़ा हुई। यद्यपि युगल कुछ समय के लिए साथ रहे, वे लगभग 29 वर्षों से अलग रह रहे थे।
पति ने आरोप लगाया कि पत्नी ने भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए और दहेज निषेध अधिनियम की धाराओं 3 और 4 के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज कराई थी, जिसके कारण उसे और उसके माता-पिता को गिरफ्तार किया गया और अंततः सभी को बरी कर दिया गया। पति ने इसे मानसिक क्रूरता बताया।
पत्नी ने क्रूरता और परित्याग के आरोपों से इनकार किया और दावा किया कि उसने वैवाहिक कर्तव्यों का निर्वहन किया है तथा वह विवाह बनाए रखने को इच्छुक है। उसने तलाक का विरोध किया और प्रतिपत्र दायर किया।
ट्रायल कोर्ट का निर्णय
निचली अदालत ने पाया कि पति-पत्नी के संबंध अपूरणीय रूप से बिगड़ चुके हैं। हालांकि यह साबित नहीं हुआ कि पति के किसी अन्य महिला से अवैध संबंध थे, लेकिन अदालत ने माना कि आपराधिक मामला दर्ज कराना, गिरफ्तारी और फिर बरी होना — यह सब मानसिक क्रूरता के अंतर्गत आता है। इस आधार पर तलाक प्रदान कर दिया गया।
अपील में पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से:
वकील ने तर्क दिया कि तलाक का एकमात्र आधार आपराधिक मामला था और केवल बरी हो जाना क्रूरता का आधार नहीं हो सकता। उन्होंने S.C. Nuna बनाम अनीता नूना और अन्य निर्णयों पर भरोसा किया, जिनमें कहा गया था कि केवल बरी होने के आधार पर तलाक नहीं दिया जा सकता।
प्रतिवादी की ओर से:
तर्क दिया गया कि झूठे आपराधिक आरोप लगाना और पति व उसके परिवार द्वारा सहन किया गया मानसिक उत्पीड़न मानसिक क्रूरता के समान है। K. श्रीनिवास बनाम K. सुनीता, नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली और K. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए. दीपा जैसे कई निर्णयों का हवाला दिया गया।
हाईकोर्ट की विश्लेषणात्मक टिप्पणी
न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति चल्ला गुणरंजन की खंडपीठ ने कहा कि झूठे आपराधिक मामलों की फाइलिंग और उसके बाद बरी होने से मानसिक आघात, सामाजिक अपमान और कष्ट हुआ, जो मानसिक क्रूरता की परिभाषा में आता है।
कोर्ट ने K. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए. दीपा का हवाला देते हुए कहा:
“पति या पत्नी, एक ही छत के नीचे न रहते हुए भी, अपने व्यवहार से मानसिक क्रूरता कर सकता/सकती है… अनेक न्यायिक कार्यवाहियां शुरू करके दूसरे पक्ष का जीवन असहनीय बना सकता/सकती है।”
अदालत ने जोर देकर कहा कि मानसिक क्रूरता के लिए भौतिक निकटता आवश्यक नहीं होती और यह लगातार अपमानजनक या पीड़ादायक आचरण से उत्पन्न हो सकती है। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि दोनों के बीच 29 वर्षों का दीर्घकालीन अलगाव और पुनर्मिलन की संभावना न होना भी तलाक के पक्ष में जाता है।
कोर्ट ने S.C. Nuna पर दिए गए तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि वह मामला भिन्न था और उसमें तलाक का अस्वीकार किया गया था जबकि वर्तमान मामले में तलाक पहले ही दिया जा चुका है।
निर्णय
हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:
“पत्नी द्वारा आपराधिक शिकायत दर्ज कराना… मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(ia) के अंतर्गत तलाक का आधार बनता है।”
अदालत ने यह भी कहा कि इस वैवाहिक संबंध में अब कोई वास्तविकता शेष नहीं है और यह केवल कानूनी कल्पना बनकर रह गया है। इसलिए तलाक की डिक्री को बरकरार रखते हुए अपील को खारिज कर दिया गया।