नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में दिए एक कड़े फैसले में जन चेतना जागृति एवं शैक्षिक विकास मंच और उसके पदाधिकारियों द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि कोई भी वादकारी अपने वकील को विलंब के लिए दोषी नहीं ठहरा सकता। न्यायमूर्ति गिरीश कथपालिया ने स्पष्ट रूप से कहा, “एक शिक्षित वादकारी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी मुकदमेबाजी पर नज़र रखे। केवल वकील की फीस का चेक साइन कर देना उसकी जिम्मेदारी की समाप्ति नहीं है।”
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ताओं में एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) और उसके अध्यक्ष व सचिव शामिल थे। उन्होंने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 96 के तहत 565 दिनों की देरी से दायर अपील में छूट मांगी थी। यह अपील एक मनी रिकवरी केस के फैसले के खिलाफ थी, जिसमें श्री आनंद राज झावर, (M/s RR Agrotech के एकमात्र स्वामी) के पक्ष में निर्णय दिया गया था।
अपीलकर्ताओं का दावा था कि उनके पूर्व वकील ने उन्हें अदालत के फैसले की जानकारी नहीं दी, जिससे वे समय पर अपील नहीं कर सके।
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कानूनी मुद्दे
इस मामले में मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या किसी पूर्व वकील की कथित लापरवाही को 1963 के सीमांकन अधिनियम (Limitation Act) की धारा 5 के तहत “पर्याप्त कारण” माना जा सकता है, जिससे डेढ़ साल से अधिक की देरी को माफ किया जा सके।
इसके अतिरिक्त, अदालत ने यह भी जांचा कि एक शिक्षित NGO और उसके पदाधिकारी क्या पूरी तरह अपने वकील पर निर्भर रह सकते हैं, बिना अपने मुकदमे की स्थिति पर ध्यान दिए।
अदालत का निर्णय और मुख्य टिप्पणियां
न्यायमूर्ति कथपालिया ने अपील खारिज करते हुए कहा, “यह केवल देरी की विशाल अवधि का मुद्दा नहीं है, बल्कि इस देरी के लिए दी गई अनुचित और अस्वीकार्य व्याख्या भी इसे अस्वीकार करने योग्य बनाती है।”
अदालत ने कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं।
पहला, अपीलकर्ताओं ने अपने पूर्व वकील के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई, जिससे उनका तर्क कमजोर पड़ गया कि उनके वकील की लापरवाही के कारण अपील में देरी हुई।
दूसरा, अदालत ने दोहराया कि वादकारियों को अपने मुकदमों पर सक्रिय रूप से नजर रखनी चाहिए। केवल वकील रखना ही पर्याप्त नहीं है।
तीसरा, अदालत ने रामलाल बनाम रेवा कोलफील्ड्स लिमिटेड (AIR 1962 SC 361) मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब एक बार सीमांकन अवधि समाप्त हो जाती है, तो प्रतिपक्ष को यह अधिकार मिल जाता है कि वह निर्णय को अंतिम रूप से मान ले।
चौथा, बलवंत सिंह बनाम जगदीश सिंह (2010) 8 SCC 685 के फैसले का संदर्भ देते हुए अदालत ने कहा कि सिर्फ लापरवाही या निष्क्रियता को देरी माफ करने का वैध आधार नहीं माना जा सकता।
पांचवा, अदालत ने कहा कि उत्तरदाता (प्रतिवादी) को यह उम्मीद थी कि न्यायिक आदेश अंतिम रहेगा, और यदि इतनी लंबी देरी के बाद अपील की अनुमति दी जाए तो यह उनके लिए अन्यायपूर्ण होगा और एक नया मुकदमा झेलना पड़ेगा।