मनी लॉन्ड्रिंग निवारण अधिनियम (PMLA) के तहत आरोपियों के अधिकारों से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा जांच के दौरान एकत्रित किए गए सभी दस्तावेज़ों और बयानों — भले ही उन्हें अभियोजन शिकायत में भरोसा न किया गया हो — की प्रति आरोपी को दी जानी चाहिए।
यह फैसला न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सुनाया। यह निर्णय दिल्ली हाईकोर्ट के एक पूर्व निर्णय को चुनौती देने वाली अपील में आया, जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि अभियोजन पक्ष पर ऐसे दस्तावेज़ आरोपी को देने की बाध्यता नहीं है जिन पर वह भरोसा नहीं कर रहा।
सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने फैसला सुनाते हुए कहा:

“यह माना गया है कि जांच अधिकारी द्वारा भरोसा न किए गए बयानों, दस्तावेज़ों, वस्तुओं एवं प्रदर्शनों की सूची की प्रति आरोपी को दी जानी चाहिए। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आरोपी को उन दस्तावेज़ों आदि की जानकारी हो जो जांच अधिकारी के पास हैं, ताकि वह उचित समय पर धारा 91 दंप्रसं (अब धारा 94 बीएनएसएस) के तहत उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए आवेदन कर सके।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार, आरोपी के प्रभावी बचाव के अधिकार को भी समाहित करता है, जिसमें प्रासंगिक दस्तावेजों तक पहुंच भी शामिल है:
“बचाव का अधिकार, दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने और गवाहों को बुलाने के अधिकार को समाहित करता है। इसलिए, जब आरोपी अपना बचाव प्रस्तुत करता है, तो वह अभियोजन पक्ष या किसी तृतीय पक्ष के पास मौजूद दस्तावेज़ों या वस्तुओं की प्रस्तुति के लिए आवेदन कर सकता है।”
दंप्रसं की धाराओं का अनुप्रयोग
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब PMLA की धारा 44(1)(b) के तहत संज्ञान लिया जाता है, तो कार्यवाही दंप्रसं की धाराओं 200 से 205 के अधीन होती है। इस चरण में विशेष न्यायालय को निम्नलिखित प्रदान करना आवश्यक है:
- PMLA की धारा 50 के तहत दर्ज बयान,
- शिकायत और पूरक शिकायत के साथ प्रस्तुत किए गए दस्तावेज़,
- और वे दस्तावेज़ जिन पर ईडी ने भरोसा नहीं किया है, उनकी सूची और पहुंच।
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के इस निष्कर्ष को खारिज कर दिया कि दंप्रसं की धारा 207 और 208 PMLA मामलों में लागू नहीं होतीं। हाईकोर्ट ने कहा था कि मुकदमे की शुरुआत आरोप तय होने के बाद होती है, इसलिए आरोपी को अविश्वसनीय दस्तावेज़ पहले से उपलब्ध कराने की आवश्यकता नहीं है।
पक्षकारों की दलीलें
वरिष्ठ अधिवक्ता आर. बसंत ने याचिकाकर्ताओं की ओर से तर्क दिया कि अविश्वसनीय दस्तावेज़ों को withheld करना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है और दंप्रसं की धारा 207 व 208 सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ उपलब्ध कराने की मांग करती हैं। उन्होंने मनोज कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य में दिए गए निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि अविश्वसनीय सामग्री की सूची देना और उस तक पहुंच देना आवश्यक है।
वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने तर्क दिया कि PMLA मामलों में आरोपी पर विभिन्न चरणों (जैसे ज़मानत) पर बचाव प्रस्तुत करने का दबाव होता है, इसलिए उन्हें शीघ्र ही सभी दस्तावेज़ों की उपलब्धता होनी चाहिए।
वहीं, ईडी की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एस.वी. राजू ने कहा कि आरोपी प्रासंगिकता के आधार पर विशेष दस्तावेज़ों की मांग कर सकता है, लेकिन blanket access मुकदमे को अनावश्यक रूप से विलंबित कर सकता है।
इस पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति ओका ने टिप्पणी की:
“अगर [आरोपी] ऐसे दस्तावेज़ों पर भरोसा करना चाहता है जो उसके पास नहीं हैं, तो उसे उन्हें प्राप्त करने का अधिकार है। आप यह नहीं कह सकते कि वह केवल अपनी जेब में मौजूद दस्तावेज़ ही प्रस्तुत कर सकता है। अन्यथा यह मनमाना होगा।”