सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपनी शादी के समय दिए गए सोने के गहनों और नकदी को वापस पाने की पूरी तरह हकदार है। जस्टिस संजय करोल और जस्टिस नोंगमीकापम कोटेश्वर सिंह की पीठ ने कलकत्ता हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें महिला को शादी के वक्त मिले स्त्रीधन (सोना और नकदी) की वापसी से वंचित कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986’ की व्याख्या “सामाजिक न्याय न्यायनिर्णयन” (Social Justice Adjudication) के आधार पर की जानी चाहिए, जिसका उद्देश्य महिलाओं की गरिमा और वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
कोर्ट के सामने मुख्य सवाल यह था कि “क्या पिता द्वारा अपनी बेटी की शादी के समय या दूल्हे को दिया गया सामान, शादी के तलाक में टूटने के बाद कानून के तहत बेटी को वापस लौटाया जा सकता है?”
पीठ ने अपीलकर्ता (पत्नी) की याचिका को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें पूर्व पति को 8 लाख रुपये और 30 भरी (bhories) सोने के गहने लौटाने का निर्देश दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता और प्रतिवादी का निकाह 28 अगस्त 2005 को हुआ था। वैवाहिक मतभेदों के चलते अपीलकर्ता ने 2009 में अपना ससुराल छोड़ दिया और 13 दिसंबर 2011 को उनका तलाक हो गया।
इसके बाद, अपीलकर्ता ने ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986’ की धारा 3 के तहत कार्यवाही शुरू की। उन्होंने कुल 17,67,980 रुपये की मांग की, जिसमें मेहर, दहेज, 30 भरी सोने के गहने और फर्नीचर का मूल्य शामिल था।
निचली अदालतों में यह मामला कई चरणों से गुजरा:
- मूल आदेश: मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) ने 2014 में आवेदन स्वीकार करते हुए 8.3 लाख रुपये देने का आदेश दिया।
- रिमांड: सत्र न्यायाधीश (Sessions Judge) ने मामले को दो बार पुनर्विचार और अतिरिक्त साक्ष्य के लिए वापस भेजा।
- ACJM का आदेश (2017): अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, बोलपुर ने 8 लाख रुपये और 30 भरी सोने की वापसी के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने विवाह रजिस्टर (काबिलनामा) की प्रविष्टियों पर भरोसा किया, लेकिन दस्तावेजी सबूतों के अभाव में फर्नीचर के दावे को खारिज कर दिया।
- सत्र न्यायालय: सत्र न्यायालय ने 2018 में ACJM के आदेश को सही ठहराया।
- हाईकोर्ट का हस्तक्षेप: पति ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत कलकत्ता हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 24 नवंबर 2022 को पति की याचिका स्वीकार कर ली और निचली अदालत के निष्कर्षों को खारिज कर दिया।
दस्तावेजों में विसंगति का विवाद
हाईकोर्ट के समक्ष विवाद का मुख्य कारण विवाह रजिस्टर की दो प्रविष्टियां (Exhibit 7 और Exhibit 8) थीं।
- Exhibit 8 (मूल प्रविष्टि): इसमें दर्ज था कि दुल्हन के पिता ने दामाद को 7 लाख रुपये और 30 भरी सोना दिया।
- Exhibit 7: इसमें यह तो दर्ज था कि यह राशि और सोना दिया गया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं लिखा था कि यह “दूल्हे को” दिया गया।
मैरिज रजिस्ट्रार (काजी) ने गवाही में स्वीकार किया कि यह एक त्रुटि थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने रजिस्ट्रार की गवाही को दरकिनार कर दिया। हाईकोर्ट ने तर्क दिया कि Exhibit 8 में दर्ज जानकारी पिता द्वारा आईपीसी की धारा 498A के तहत दी गई गवाही से मेल खाती है, जहां उन्होंने कहा था कि उन्होंने ये चीजें प्रतिवादी को दी थीं। चूंकि 498A मामले में पति बरी हो गया था, इसलिए हाईकोर्ट ने माना कि रजिस्ट्रार की गवाही विश्वसनीय नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां और विश्लेषण
फैसला लिखते हुए जस्टिस संजय करोल ने हाईकोर्ट के तर्क को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के अधिनियम की धारा 3(1) का विश्लेषण किया, जो एक तलाकशुदा महिला को “शादी के समय या उससे पहले या बाद में रिश्तेदारों, दोस्तों या पति द्वारा दी गई सभी संपत्तियों” को पाने का अधिकार देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ (2001) के संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि यह अधिनियम मुस्लिम महिलाओं को उचित प्रावधान और भरण-पोषण सुनिश्चित करने के लिए अन्य कानूनों पर वरीयता रखता है।
साक्ष्य के मूल्य पर
सुप्रीम कोर्ट ने मैरिज रजिस्ट्रार की गवाही को नजरअंदाज करने के लिए हाईकोर्ट की आलोचना की। कोर्ट ने कहा:
“हाईकोर्ट ने नोट किया कि विवाह रजिस्टर में ओवरराइटिंग के बारे में रजिस्ट्रार का बयान उनके द्वारा कोर्ट में रजिस्टर पेश करने से साबित होता है। जब ऐसा है, तो हमें यह समझ नहीं आता कि उनके पूरे बयान को क्यों स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। केवल रजिस्टर में ओवरराइटिंग के कारण उनके आचरण को संदिग्ध मानकर उनकी गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता।”
धारा 498A आईपीसी की कार्यवाही के संबंध में, पीठ ने कहा कि भले ही पिता ने पति को सोना देने की बात कही हो और पति उस आपराधिक मामले में बरी हो गया हो, इसका मतलब यह नहीं है कि 1986 के अधिनियम के तहत वर्तमान कार्यवाही में पिता के बयान या रजिस्ट्रार की गवाही का कोई मूल्य नहीं है।
सामाजिक न्याय और कानून की व्याख्या
कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने मामले को केवल एक दीवानी (सिविल) विवाद मानकर गलती की और अधिनियम के मूल उद्देश्य को नजरअंदाज कर दिया। निर्णय में कहा गया:
“भारत का संविधान सभी के लिए समानता की आकांक्षा रखता है, जिसे हासिल करना अभी बाकी है। इस उद्देश्य के लिए अदालतों को अपने तर्कों को ‘सामाजिक न्याय न्यायनिर्णयन’ (Social Justice Adjudication) पर आधारित करना चाहिए। 1986 के अधिनियम का उद्देश्य तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं की गरिमा और वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिलाओं के अधिकारों के अनुरूप है।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“इस अधिनियम की व्याख्या समानता, गरिमा और स्वायत्तता को सबसे आगे रखकर की जानी चाहिए, और यह महिलाओं के उन वास्तविक अनुभवों के आलोक में होनी चाहिए, जहां विशेष रूप से छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में पितृसत्तात्मक भेदभाव अभी भी कायम है।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया।
जारी किए गए निर्देश:
- अपीलकर्ता (पत्नी) के वकील को तीन कार्य दिवसों के भीतर प्रतिवादी के वकील को बैंक विवरण उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया है।
- प्रतिवादी (पति) को निर्देश दिया गया है कि वह निचली अदालत द्वारा निर्धारित राशि (8 लाख रुपये और 30 भरी सोने का मूल्य) सीधे अपीलकर्ता के बैंक खाते में जमा कराए।
- प्रतिवादी को छह सप्ताह के भीतर सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री में अनुपालन का हलफनामा दाखिल करना होगा।
- ब्याज: यदि निर्धारित समय के भीतर भुगतान नहीं किया जाता है, तो प्रतिवादी को 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज देना होगा।

