सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि यदि किसी सरकारी कर्मचारी के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई उन्हीं आरोपों, साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर की गई है जिन पर वह आपराधिक मामले में दोषमुक्त हो चुका है, तो ऐसी अनुशासनात्मक कार्रवाई कायम नहीं रह सकती। यह टिप्पणी न्यायालय ने बिहार अपराध अनुसंधान विभाग (CID) के पूर्व कांस्टेबल महाराणा प्रताप सिंह की अपील स्वीकार करते हुए दी, जिन्हें एक आपराधिक मुकदमे में बरी होने के बावजूद समान आरोपों पर विभागीय कार्रवाई के तहत सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।
पीठ और निर्णय
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने पटना हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के निर्णय को आंशिक रूप से निरस्त करते हुए एकल पीठ के आदेश को सीमित हद तक बहाल किया। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि विभागीय कार्रवाई प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों से ग्रस्त थी—जैसे कि अभियुक्त को जिरह का अधिकार न देना और अस्पष्ट आरोप। हालांकि, लंबा समय बीत जाने के कारण कोर्ट ने पुनर्नियुक्ति का आदेश नहीं दिया और इसके बजाय ₹30 लाख का समेकित मुआवज़ा तथा ₹5 लाख की लागत राशि देने का आदेश दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
सिंह को 1973 में CID में कांस्टेबल नियुक्त किया गया था। 8 अगस्त 1988 को एक प्राथमिकी के आधार पर उन्हें जबरन वसूली और फर्जीवाड़े के आरोप में गिरफ्तार कर निलंबित कर दिया गया। 14 जून 1989 को विभागीय कार्रवाई शुरू हुई और 21 जून 1996 को चार आरोप सिद्ध होने पर उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।
ट्रायल कोर्ट ने उन्हें IPC की धारा 384 और 411 के तहत दोषी ठहराया, लेकिन गंभीर आरोपों से बरी कर दिया। बाद में 16 फरवरी 1996 को अपर सत्र न्यायाधीश, पटना ने उक्त दोषसिद्धि को निरस्त करते हुए उन्हें पूर्णतः दोषमुक्त करार दिया। बावजूद इसके, विभागीय अपील और पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई, जिसके खिलाफ सिंह ने हाईकोर्ट का रुख किया।
हाईकोर्ट के निर्णय
पटना हाईकोर्ट की एकल पीठ ने सिंह की बर्खास्तगी को रद्द करते हुए कहा कि जब आपराधिक अदालत ने उन्हें दोषमुक्त किया है, तब विभागीय अधिकारी को आरोप स्वतंत्र रूप से सिद्ध करने चाहिए थे। जांच में प्रमुख गवाहों ने या तो अभियुक्त की पहचान नहीं की या उन्हें जिरह के लिए उपस्थित नहीं किया गया। एकल पीठ ने Sawai Singh v. State of Rajasthan और G.M. Tank v. State of Gujarat मामलों का हवाला देते हुए विभागीय कार्रवाई को असंवैधानिक करार दिया।
परंतु डिवीजन बेंच ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि एकल पीठ ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर साक्ष्यों की दोबारा समीक्षा की और विभागीय निर्णय की अपील जैसी भूमिका निभाई। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन नहीं हुआ था और बर्खास्तगी उचित थी।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने डिवीजन बेंच से असहमति जताते हुए कहा कि विभागीय कार्रवाई गंभीर प्रक्रिया संबंधी त्रुटियों से ग्रस्त थी:
- लगाए गए आरोप अस्पष्ट, असंपूर्ण और नियम 55 (सिविल सेवा वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील नियमावली, 1930) के विपरीत थे।
- राज्य द्वारा मांगी गई विभागीय फाइल पेश नहीं की गई, जिससे साक्ष्य अधिनियम की धारा 114(g) के तहत प्रतिकूल अनुमान लगाया गया।
- प्रमुख गवाह PW-1 की गवाही पर आधारित रिपोर्ट तैयार की गई, लेकिन उन्हें जिरह का मौका नहीं दिया गया।
- PW-2 ने न तो विभागीय जांच में और न ही आपराधिक कार्यवाही में अभियुक्त की पहचान की।
- शिकायतकर्ता, जिसकी शिकायत पर आपराधिक व विभागीय कार्यवाही शुरू हुई थी, उसे जांच में पेश ही नहीं किया गया।
G.M. Tank और Ram Lal v. State of Rajasthan का हवाला देते हुए पीठ ने दोहराया:
“जब विभागीय और आपराधिक कार्यवाही में आरोप, साक्ष्य, गवाह और परिस्थितियाँ समान हों, तो विभागीय कार्यवाही के निष्कर्ष को बनाए रखना अन्यायपूर्ण, अनुचित और दमनकारी होगा।”
निष्कर्ष और राहत
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि एकल पीठ ने अपीलीय अधिकारों का आंशिक उपयोग किया, लेकिन डिवीजन बेंच द्वारा प्रक्रिया संबंधी खामियों और प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन की अनदेखी न्याय का घोर उल्लंघन था।
चूंकि सिंह 1996 में बर्खास्तगी के समय लगभग 45 वर्ष के थे और अब लगभग 74 वर्ष के हैं, कोर्ट ने पुनर्नियुक्ति से इनकार कर दिया और उन्हें ₹30 लाख का समेकित मुआवज़ा तथा ₹5 लाख की लागत की राशि तीन माह के भीतर देने का आदेश दिया।
मामले का हवाला: Maharana Pratap Singh v. State of Bihar & Ors., सिविल अपील संख्या 5497/2025 (SLP (C) No. 9818/2017 से उत्पन्न)