सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 के दायरे पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि व्यापारिक लेन-देन में आपूर्ति किए गए सामान में खराबी से संबंधित अस्पष्ट आरोप प्रथम दृष्टया धोखाधड़ी का अपराध नहीं बनते। कोर्ट ने आपराधिक कार्यवाही के दुरुपयोग के खिलाफ एक कड़ा संदेश देते हुए यह भी कहा कि कानून का इस्तेमाल “उत्पीड़न के हथियार के रूप में या व्यक्तिगत बदला लेने के लिए” नहीं किया जा सकता।
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर अपील को स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने माना कि आपराधिक कार्यवाही “स्पष्ट रूप से दुर्भावनापूर्ण” थी और गलत इरादे से शुरू की गई थी। इसके परिणामस्वरूप, कोर्ट ने अपीलकर्ताओं, परमजीत सिंह और सरबजीत सिंह के खिलाफ दर्ज एफआईआर संख्या 11/2023 और उससे जुड़ी सभी आगामी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 12 दिसंबर, 2017 को मैसर्स सोमा स्टोन क्रशर (शिकायतकर्ता) और सरबजीत सिंह के मालिकाना हक वाली फर्म मैसर्स सैनी इंजीनियरिंग वर्क्स के बीच हुए एक खरीद-बिक्री समझौते से शुरू हुआ। यह समझौता 9,12,912 रुपये में एक ‘सैंड रूला मशीन’ और अन्य ढांचों की खरीद के लिए था।

समझौते के अनुसार, शिकायतकर्ता ने 5,00,000 रुपये का अग्रिम भुगतान चेक के माध्यम से किया। हालांकि, बाद में उस चेक का भुगतान रोक दिया गया। इस पर, मैसर्स सैनी इंजीनियरिंग वर्क्स ने अप्रैल 2018 में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज कराई।
इस घटना के लगभग पांच साल बाद, 14 फरवरी, 2023 को मैसर्स सोमा स्टोन क्रशर के मालिक ने अपीलकर्ताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा 420 के तहत धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए एक एफआईआर दर्ज कराई। एफआईआर में आरोप लगाया गया कि आपूर्ति की गई मशीन का वजन और उत्पादन क्षमता वादे के मुताबिक नहीं थी (वजन 14 टन के बजाय 12 टन और उत्पादन 1000-1200 फीट प्रति घंटे के बजाय 500 फीट था)। एफआईआर में कहा गया कि दोषपूर्ण मशीन को न बदलने के कारण उन्हें 50 लाख रुपये का नुकसान हुआ।
पुलिस जांच के बाद, दोनों अपीलकर्ताओं के खिलाफ धारा 420 और 120B के तहत आरोप पत्र दायर किया गया। इस एफआईआर को रद्द करने की याचिका हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने खारिज कर दी, जिसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने मामले का गहन विश्लेषण किया और पाया कि धोखाधड़ी के अपराध का मुख्य तत्व—यानी वादा करते समय धोखाधड़ी या बेईमानी का इरादा—इस मामले में मौजूद नहीं था।
कोर्ट ने इंदर मोहन गोस्वामी बनाम उत्तरांचल राज्य, (2007) 12 SCC 1 मामले में दिए अपने फैसले का हवाला देते हुए दोहराया, “किसी व्यक्ति को धोखाधड़ी का दोषी ठहराने के लिए यह दिखाना आवश्यक है कि वादा करते समय उसका इरादा धोखाधड़ीपूर्ण या बेईमानी का था। बाद में केवल वादा निभाने में उसकी विफलता से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि शुरू से ही वादा तोड़ने का उसका आपराधिक इरादा था।”
इस सिद्धांत को लागू करते हुए, पीठ ने मशीन में खराबी से संबंधित आरोपों को अस्पष्ट और आपराधिक इरादे को स्थापित करने के लिए अपर्याप्त पाया। फैसले में कहा गया, “शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए केवल अस्पष्ट आरोप… धारा 420 आईपीसी के तहत परिभाषित संपत्ति देने के लिए बेईमानी से प्रेरित करने की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।”
कोर्ट ने दीवानी प्रकृति के विवादों को निपटाने के लिए आपराधिक कानून के इस्तेमाल की कड़ी निंदा की। कोर्ट ने कहा, “आपराधिक कानून को व्यक्तिगत हिसाब-किताब चुकता करने और बदला लेने के लिए एक मंच नहीं बनना चाहिए।” पीठ ने यह भी कहा कि एफआईआर दर्ज करने में हुई पांच साल की देरी “शिकायतकर्ता की नीयत पर संदेह पैदा करती है।”
हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल, 1992 Suppl (1) SCC 335 के ऐतिहासिक मामले का उल्लेख करते हुए, कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यह कार्यवाही दुर्भावनापूर्ण तरीके से शुरू की गई थी और यह उन मामलों की श्रेणी में आती है, जिन्हें अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए रद्द किया जाना चाहिए।
निर्णय
अपने विश्लेषण के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आपराधिक कार्यवाही जारी रखने से अपीलकर्ताओं का अनुचित उत्पीड़न होगा, क्योंकि धारा 420 आईपीसी के तहत कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है। कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए एफआईआर और उससे जुड़ी सभी कार्यवाहियों को समाप्त कर दिया।