विभागीय जांच में दोषमुक्ति भ्रष्टाचार के मामलों में स्वतः डिस्चार्ज का आधार नहीं; सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को सैंक्शन की वैधता फिर से जांचने का निर्देश दिया

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि केवल विभागीय जांच (Departmental Enquiry) में दोषमुक्त हो जाना, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PC Act) के तहत दर्ज आपराधिक मामले में आरोपी को डिस्चार्ज (आरोप मुक्त) करने का पर्याप्त आधार नहीं है। पीठ ने कहा कि अनुशासनात्मक जांच और आपराधिक मुकदमे (Trial) में सबूतों के मानक (Standard of Proof) पूरी तरह से अलग होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने विभागीय दोषमुक्ति के आधार पर डिस्चार्ज की मांग को खारिज कर दिया, लेकिन अभियोजन स्वीकृति (Sanction for Prosecution) की वैधता के मुद्दे पर कर्नाटक हाईकोर्ट के निष्कर्षों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने इस मामले को वापस ट्रायल कोर्ट भेज दिया है ताकि यह तय किया जा सके कि आरोपी की “नियुक्ति प्राधिकारी” (Appointing Authority) कौन था, जिससे सैंक्शन की वैधता निर्धारित की जा सके।

मामले की पृष्ठभूमि (Background)

अपीलकर्ता, टी. मंजूनाथ, आर.टी.ओ. कार्यालय, के.आर. पुरम, बेंगलुरु में सीनियर मोटर व्हीकल इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। उन पर आरोप था कि उन्होंने एक निजी व्यक्ति, सह-आरोपी एच.बी. मस्तीगौड़ा के माध्यम से शिकायतकर्ता से 15,000 रुपये की अवैध रिश्वत की मांग की और उसे स्वीकार किया। लोकायुक्त पुलिस ने एक जाल (Trap) बिछाया था, जिसके बाद भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत अपराध संख्या 48/2012 दर्ज की गई थी।

परिवहन आयुक्त (Commissioner of Transport) ने पीसी एक्ट की धारा 19 के तहत अभियोजन की मंजूरी (Sanction) दी थी, जिसके बाद चार्जशीट दाखिल की गई थी।

अपीलकर्ता ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 227 और 239 के तहत डिस्चार्ज के लिए आवेदन दायर किया, जिसमें मुख्य रूप से दो आधार दिए गए:

  1. अवैध सैंक्शन: उन्होंने तर्क दिया कि उनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की गई थी, इसलिए परिवहन आयुक्त अभियोजन की मंजूरी देने के लिए सक्षम प्राधिकारी (Competent Authority) नहीं थे।
  2. विभागीय दोषमुक्ति: उन्होंने दावा किया कि उन्हीं आरोपों और सबूतों पर आधारित विभागीय कार्यवाही में उन्हें बरी कर दिया गया है, इसलिए आपराधिक मामले में भी उन्हें डिस्चार्ज किया जाना चाहिए।
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ट्रायल कोर्ट ने 23 अगस्त, 2017 को आरोपी को डिस्चार्ज कर दिया था, यह मानते हुए कि सैंक्शन राज्य सरकार द्वारा नहीं दिया गया था, इसलिए यह अवैध था। हालांकि, कर्नाटक हाईकोर्ट ने 26 जुलाई, 2024 के अपने आदेश में ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया और माना कि परिवहन आयुक्त सक्षम प्राधिकारी थे। इसके खिलाफ अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

पक्षों की दलीलें (Arguments)

अपीलकर्ता का पक्ष: अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत ने तर्क दिया कि विभागीय कार्यवाही उन्हीं आरोपों और सबूतों पर आधारित थी, और उसमें अपीलकर्ता को बरी कर दिया गया क्योंकि शिकायतकर्ता और अन्य गवाहों ने विभाग के मामले का समर्थन नहीं किया था। उन्होंने आशु सुरेंद्रनाथ तिवारी बनाम पुलिस उपाधीक्षक (2020) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि आपराधिक मुकदमा जारी रखना अनुचित है।

सैंक्शन के मुद्दे पर, श्री कामत ने 3 दिसंबर, 1991 का एक कार्यालय ज्ञापन पेश किया और तर्क दिया कि अपीलकर्ता की नियुक्ति कर्नाटक के राज्यपाल के अधिकार से हुई थी। इसलिए, पीसी एक्ट की धारा 19(1) के तहत, केवल राज्य सरकार ही सैंक्शन देने के लिए सक्षम थी, न कि कमिश्नर।

राज्य का पक्ष: राज्य की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता अमन पंवार ने तर्क दिया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में केवल बरी होना आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि विभागीय जांच में बरी होने का कारण गवाहों का मुकर जाना (Hostile) था, लेकिन ट्रैप लगाने वाले अधिकारी ने अभियोजन के मामले का पूरा समर्थन किया था।

राज्य ने स्टेट बनाम टी. मूर्ति (2004) और अन्य फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि पीसी एक्ट की धारा 19(4) के स्पष्टीकरण के कारण केवल सक्षमता की कमी के आधार पर सैंक्शन आदेश को रद्द नहीं किया जा सकता। राज्य ने अपीलकर्ता के दस्तावेजों को भी चुनौती दी और कहा कि कमिश्नर ही नियुक्ति प्राधिकारी थे।

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कोर्ट का विश्लेषण (Analysis)

1. आपराधिक कार्यवाही पर विभागीय दोषमुक्ति का प्रभाव सुप्रीम कोर्ट ने जांच रिपोर्ट का अवलोकन किया, जिससे पता चला कि अपीलकर्ता को मुख्य रूप से इसलिए बरी किया गया था क्योंकि शिकायतकर्ता और छाया गवाह (Shadow Witness) ने विभाग के संस्करण का समर्थन नहीं किया था। हालांकि, जांच अधिकारी ने मामले का समर्थन किया था।

फैसला लिखते हुए जस्टिस संदीप मेहता ने कहा:

“हमारा मानना है कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी का यह निष्कर्ष निकालना कि कर्मचारी का दोष केवल ट्रैप लगाने वाले अधिकारी की गवाही पर साबित नहीं किया जा सकता, अपरिपक्व और निराधार है।”

कोर्ट ने कहा कि आपराधिक मुकदमों में, भले ही गवाह मुकर जाएं, फिर भी ट्रैप लगाने वाले अधिकारी की गवाही पर सजा हो सकती है। कोर्ट ने कहा:

“इस प्रकार, केवल यह तथ्य कि कुछ गवाहों ने अनुशासनात्मक कार्यवाही में विभाग के मामले का समर्थन नहीं किया, अपने आप में यह आश्वासन नहीं देता है कि वे आपराधिक मुकदमे में भी ऐसा ही करेंगे।”

2. धारा 19 पीसी एक्ट के तहत सैंक्शन: क्षमता और क्षेत्राधिकार कोर्ट ने इस मुद्दे पर विचार किया कि क्या परिवहन आयुक्त सैंक्शन देने के लिए सक्षम थे। कोर्ट ने राज्य द्वारा उद्धृत उदाहरणों को अलग करते हुए स्पष्ट किया कि पीसी एक्ट की धारा 19(4) का स्पष्टीकरण—जो सैंक्शन में त्रुटियों को ठीक करता है—तब लागू होता है जब किसी निष्कर्ष या सजा के पारित होने के बाद अपीलीय या पुनरीक्षण अदालत द्वारा सैंक्शन की जांच की जा रही हो।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले में, यह निर्धारण ट्रायल कोर्ट ने अपने मूल क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) में किया था, इसलिए धारा 19(4) का स्पष्टीकरण यहाँ लागू नहीं होता है।

3. विवादित नियुक्ति प्राधिकारी कोर्ट ने नियुक्ति प्राधिकारी के संबंध में “विरोधाभासी दावों” पर गौर किया। अपीलकर्ता ने राज्यपाल द्वारा नियुक्ति का सुझाव देने वाले दस्तावेज पेश किए, जबकि राज्य ने 11 फरवरी, 2010 का एक आदेश पेश किया, जिसमें कमिश्नर को अधिकार दिया गया था।

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कोर्ट ने कहा:

“इस विवादित तथ्यात्मक परिदृश्य को देखते हुए, हमारा सुविचारित मत है कि विवाद के उचित और प्रभावी समाधान के लिए, न्याय के हित में मामले को वास्तविक नियुक्ति प्राधिकारी के सीमित मुद्दे पर नए सिरे से निर्णय लेने के लिए ट्रायल कोर्ट को वापस भेजना उचित होगा…”

निर्णय (Decision)

सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देशों के साथ अपीलों का निपटारा किया:

  1. डिस्चार्ज की मांग खारिज: विभागीय कार्यवाही में दोषमुक्त होने के कारण डिस्चार्ज (आरोप मुक्त) किए जाने की अपीलकर्ता की दलील को खारिज कर दिया गया।
  2. सैंक्शन पर रिमांड: सैंक्शन की वैधता पर कर्नाटक हाईकोर्ट के निष्कर्ष को रद्द कर दिया गया।
  3. नए सिरे से निर्धारण: मामले को वापस ट्रायल कोर्ट भेज दिया गया ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि अपीलकर्ता का “वास्तविक नियुक्ति प्राधिकारी” कौन था। ट्रायल कोर्ट को मूल रिकॉर्ड/समकालीन दस्तावेजों को तलब करने की स्वतंत्रता दी गई।
  4. परिणाम: यदि ट्रायल कोर्ट पाता है कि सैंक्शन सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी किया गया था, तो मुकदमा आगे बढ़ेगा। यदि नहीं, तो चार्जशीट को सक्षम प्राधिकारी से नया सैंक्शन प्राप्त करने के लिए जांच एजेंसी को लौटा दिया जाएगा।

केस विवरण:

  • केस टाइटल: टी. मंजूनाथ बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य
  • केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर (2025) (SLP(Crl.) No(s). 11160-11161 of 2024 से उत्पन्न)
  • साइटेशन: 2025 INSC 1356
  • बेंच: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता
  • अपीलकर्ता के वकील: वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत
  • राज्य के वकील: एएजी अमन पंवार

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