दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अस्पतालों में मरीजों को इंश्योरेंस क्लेम के दौरान होने वाला उत्पीड़न क्षतिपूर्ति का आधार हो सकता है, लेकिन यह आपराधिक अपराध की श्रेणी में नहीं आता। न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने यह टिप्पणी एक मामले की सुनवाई के दौरान की और बिल सेटलमेंट और मरीजों की डिस्चार्ज प्रक्रिया को सुगम बनाने की आवश्यकता पर बल दिया, लेकिन अस्पताल के व्यवहार को अपराध की श्रेणी में रखने से इनकार कर दिया।
यह मामला एक वकील से जुड़ा था, जिन्होंने 2013 में दिल्ली के एक निजी अस्पताल में सर्जरी कराई थी। उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें कैशलेस इंश्योरेंस योजना के तहत कवर किए जाने के बावजूद अस्पताल ने पहले से अनुमानित संपूर्ण राशि जमा कराने को मजबूर किया और तब तक डिस्चार्ज नहीं किया जब तक पूरी भुगतान राशि क्लेम से नहीं आ गई। उन्होंने इसे धोखाधड़ी, धन का दुरुपयोग और अनुचित रूप से रोकने जैसा कृत्य बताया।
न्यायालय ने निचली अदालत के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें अस्पताल को समन जारी करने से इनकार किया गया था। कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को प्रक्रियात्मक देरी और असुविधा का सामना करना पड़ा, लेकिन यह देरी आपराधिक कृत्य नहीं है। कोर्ट ने यह भी माना कि मरीजों को अक्सर अंतिम बिल सेटलमेंट के दौरान परेशानियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन यह परेशानी आपराधिक श्रेणी में नहीं आती।
अस्पताल की ओर से कहा गया कि इंश्योरेंस कंपनी की ओर से जो मंजूरी मिली थी, वह सीमित राशि और एक निचली श्रेणी के कमरे के लिए थी। बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण (IRDA) के नियमों के तहत, अस्पताल को वास्तविक खर्च और मंजूर राशि के बीच का अंतर मरीज से वसूलना अनिवार्य था।
कोर्ट ने कहा कि मरीजों से अग्रिम भुगतान की मांग कठिन लग सकती है, लेकिन इसे जबरन वसूली या धोखाधड़ी नहीं माना जा सकता। यह अस्पताल द्वारा धोखाधड़ी या बेईमानी के इरादे को नहीं दर्शाता।
न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने सुझाव दिया कि राज्य और केंद्र सरकारों के साथ-साथ IRDA और मेडिकल काउंसिलों को अस्पताल से डिस्चार्ज और इंश्योरेंस क्लेम मंजूरी की प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए एक नियामक प्रणाली पर विचार करना चाहिए, जिससे मरीजों को होने वाली परेशानियों को कम किया जा सके।