दिल्ली हाईकोर्ट ने शिक्षकों पर निजी ट्यूशन प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा

दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को स्कूल शिक्षकों पर निजी ट्यूशन देने पर लगे प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा है।

मुख्य न्यायाधीश डी. के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने यह आदेश सेवानिवृत्त रसायन शास्त्र शिक्षक प्रेम प्रकाश धवन द्वारा दायर याचिका पर दिया। अदालत ने अगली सुनवाई 12 नवम्बर को निर्धारित की है।

धवन ने अपनी याचिका में कहा है कि यह प्रतिबंध शिक्षकों के उस मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसके तहत वे अपनी पसंद का व्यवसाय या पेशा चुन सकते हैं। उन्होंने बालकों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की धारा 28 को चुनौती दी है, जो स्कूल शिक्षकों को निजी ट्यूशन या निजी शिक्षण गतिविधियों में भाग लेने से रोकती है।

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इसके अलावा उन्होंने दिल्ली स्कूल शिक्षा नियम, 1973 की धारा 113 और उसी नियम के अंतर्गत बने शिक्षकों के आचार संहिता पर भी सवाल उठाया है, जो शिक्षकों को अपने विद्यालय के अलावा किसी अन्य स्रोत से पारिश्रमिक प्राप्त करने पर रोक लगाती है।

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सुनवाई के दौरान पीठ ने यह सवाल उठाया कि जब याचिकाकर्ता सेवानिवृत्त हैं और अब इन प्रावधानों से सीधे प्रभावित नहीं हैं, तो वे इस याचिका को कैसे दायर कर सकते हैं।

अदालत ने टिप्पणी की,

“यह तथ्य कि उन्होंने सेवा में रहते हुए अदालत का रुख नहीं किया, संदेह उत्पन्न करता है। उन्होंने यह कदम इसलिए नहीं उठाया क्योंकि इससे उनकी सेवा और वेतन पर असर पड़ता। हमें इसमें कोई जनहित नहीं दिखता। याचिकाकर्ता से कहिए कि किसी वर्तमान शिक्षक का उदाहरण दें।”

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धवन की ओर से अधिवक्ता तनमय मेहता, कर्मण्य सिंह सरीन और कृष्णगोपाल अभय ने दलील दी कि यह कानून मनमाना और असंवैधानिक है तथा व्यवहार में कई शिक्षक अब भी ट्यूशन दे रहे हैं, फिर भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

हालांकि, अदालत ने यह टिप्पणी की कि किसी कानून के दुरुपयोग या उसके अनुचित क्रियान्वयन का आरोप उसके संवैधानिक वैधता को चुनौती देने का आधार नहीं बन सकता।

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केंद्र सरकार की ओर से बताया गया कि यह प्रतिबंध शिक्षण मानकों की शुचिता बनाए रखने और हितों के टकराव से बचने के लिए आवश्यक है। सरकार ने इस मुद्दे पर विस्तृत जवाब दाखिल करने के लिए समय मांगा, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया।

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